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, (अन्वय :- अनुन्नंत्तरि अंगुलि-कोसाऽऽगारेहिं दोहिं हत्थेहिं पिट्टोवरि-कुप्पर - संठिएहिं तह जोग-मुद्दत्ति ) ॥१५॥
. शब्दार्थ :- अनुन्नत्तरि अंगुलि-कोसा ऽऽगारेहिं =परस्पर एक दूसरी के आंतरे मे अंगुलिओं को स्थापनकर डोडे के आकार सम की हुई, दोहि दो, हत्थेहिं हाथ दारा,पिहोवरि |-कुप्पर -संठिएहि =पेट के ऊपर,दोनों कोणी स्थापनकरे, तह-वह, जोग-योगमुद्रा। - गाथार्थ :-परस्पर के आंतरो मे अंगुलियाँ भराकर कमल के डोडे का आकार बनाकर पेट ऊपर कोणी स्थापनकर दो हाथ द्वारा बनी हुई आकार वाली मुद्रा,वह योग मुद्रा है।
विशेषार्थ :-हथेलियों को कमल के डोडे के आकार के समान मिलाना | बांये हाथ| . की अंगुलियाँ, दांये हाथ की अंगुलिओं में आजाय, इस प्रकार परस्पर की अंगुलियाँ स्थापित करना । जिससे की बांया अंगुठा दांये अंगुठे के सामने जुड़ा हुआ रहे। तथा संयुक्त अथवा असंयुक्त दोनो कोणीयों को पेट या नाभी ऊपर स्थापित करना । और हाथों से रचा गया कोशाकार कुछ झुका हुआ मस्तक से कुछ दूर रखना। ये मुद्रा खडे' और बैठकर भी की जाती | है। इस मुद्रा का उपयोग १८ वी गाथा में दिया गया है । यहाँ योग अर्थात् दोनो हाथों का संयोग विशेष,अथवा योग-समाधि,उसके मुख्यतावाली मुद्रा वह योग मुद्रा, ये मुद्रा विघ्नोपशांति में भी समर्थ है।
जिनमुद्रा चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाई जत्त्य पच्छिमओ ।
पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिण- मुद्दा ||१६|| अन्वय:- जत्थ पायाणं उस्सग्गो पुरओ चत्तारि अंगुलाई, पच्छिमओ ऊणाई एसा पुण जिण मुद्दा होइ ॥१६॥
शब्दार्थ :-चत्तारि =चार, अंगुलाई-अंगुल, पुरओ=आगे, ऊणाई-न्युनकम, जत्थ-जिसमें, पच्छिमओ-पीछे, पायाणं-दो पैर का, उस्सग्गो= अंतर, एसा= यह, पुण और,जिण-मुद्दा-जिनमुद्रा ॥१६।।
गाथार्थ :-और जिसमें दो पैर का अंतर आगे चार अंगुल और पीछे कुछ कम हो, वह जिनमुद्रा ॥१६॥
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