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को ओघे से प्रमार्जना करनी चाहिये। श्री जिनेश्वर अनुयाईओ की मार्गानुसारी सभी धर्म क्रियाएँ जीवों की जयणा पूर्वक ही होती है। जिसमें जयणा नही वह धर्म क्रिया नही । प्रमार्जनात्रिक दशत्रिक में आ गया है अर्थात् क्रमानुसार उसे यहाँ समझ लेना चाहिये । कोई खास विशेषता न कहने के कारण, उसकी खास गाथा नही कही ।
८. वर्णादिक आलंबनत्रिक ९. मुद्रात्रिक
वन -तियं वन्नऽत्था - लंबणमालंबणं तु पडिमाई जोग - जिण मुत्त-सुत्ती - मुद्दा - भेएण मुद्द- तियं ॥ १४ ॥
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अन्वय :- वन्नऽत्थाऽऽ लंबण तु पडिमाइ आलंबणं वन्न - तियं । जोग - जिणमुत्त-सुत्ती मुद्दा भेएण मुद्द-तियं ॥ १४ ॥
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शब्दार्थ :- वन्नतियं = वर्णत्रिक, वन्नऽत्थाऽऽलंबणं - वर्णालंबन अर्थालंबन, पडिमा - आलंबणं प्रतिमादि आलंबन, जोग - जिण मुत्त-सुत्ती मुद्दा भेएणं योग, जिन और मुक्ताशुक्ति इन मुद्राओं के भेद से, मुद्द-तियं मुद्रात्रिक होता है ।
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विशेषार्थ : चैत्यवंदन सूत्र के अक्षर अतिस्पष्ट, शुद्ध एवं स्वर और व्यंजन के भेद, पदच्छेद, शब्द व संपदाएँ स्पष्ट समझ में आवे इस प्रकार मधुर ध्वनि से बोलना । उसे वर्णालंबन अथवा सूत्रालंबन कहा जाता है।
चैत्यवंदन के सूत्रों के अर्थ भी सूत्र चिन्तन करना चाहिए । वह अर्थालंबन है ।
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बोलते समय अपने ज्ञान के अनुसार अवश्य
दंडक सूत्रों के अक्षरों में समाये हुए साक्षात् भाव अरिहन्त प्रभु का स्मरण करना तथा जिनकी सामने वंदन करने का प्रारम्भ किया है, वो प्रतिमा भी स्मृति से बाहर नहीं होनी चाहिये। इसलिए ध्यान रहे कि स्थापना प्रतिमादि का भी आलंबन अवश्य लिया जाता है । तीन मुद्राओं के स्वरूप का वर्णन अगली गाथा में विस्तारपूर्वक दिया गया है । उसके नाम मात्र यहाँ याद रखना है || १४ ||
९. योग मुद्रा
अनुनंतर अंगुलि - कोसा - ऽऽगारेहिं दोहिं इत्थेहिं । पिहोवरि - कुप्पर-संठिएहिं तह जोग - मुद्दति ॥ १७ ॥
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