________________
प्रतिमाजी में तो किसी एक मुख्य अवस्था का ही विधान हो सकता है। प्रतिमा में मुख्यतया पर्यंकासन या कार्योत्सर्ग अवस्था का विधान होता है क्योंकि प्रभु की ये प्रधान और मुख्य पूज्यावस्था है।
उसी में ही सर्वावस्थाओं की स्थापन कर भिन्न भिन्न भक्त या एक ही भक्त एक साथ में या क्रमानुसार अलग अलग अवस्थाओं का विविध पूजोपचार से पूजा भक्ति कर सकते हैं। शास्त्रों में इसके स्पष्टीकरण के साथ के कई प्रमाण उपलब्ध हैं। ग्रंथ विस्तारभय से यहाँ शास्त्रीय प्रमाण नहीं दिया गया है। अलग अलग अवस्था की अपेक्षा से पूजा के प्रकार संपादन करने वालों का नय निक्षेपों का मानसशास्त्र तथा आध्यात्मिक साधनों की सूक्ष्म रचनाओं के संपादन का ज्ञान अद्भूत था ऐसा प्रमाण मिलता है ।
प्रश्न : प्रभुजी की वो अवस्था ध्यान में स्थिर करने के बाद उस विषय में हम भावना किस प्रकार से भावें ?
उत्तर : श्री प्रवचनसारोदार ग्रंथ की वृत्ति में कहा है कि : हस्ति, अश्व, स्त्री आदि महावैभव और सुखवाले साम्राज्य का त्याग कर प्रभु ने श्रमण जीवन (दीक्षा) अंगीकार किया था । ऐसे अचिन्त्य महिमावन्त जगदीश्वर के दर्शन महापुण्यशाली व्यक्ति ही प्राप्त कर सकता है।
श्रमणवस्था में प्रभु शत्रु मित्र के प्रति समान भाववाले, चार ज्ञानवाले, तृण- - मणि तथा सुवर्ण और पत्थर में समान दृष्टिवाले, ऐसे प्रभु निदान रहित विचित्र तपश्चर्याएँ करते हुए निःसंग विहार करते थे । इत्यादि भावार्थ से परमात्मा की छद्मस्थावस्था का चिन्तन करना। केवलि अवस्था के गुणों का विचार कर केवलि अवस्था का चिन्तन करना और सिध्धा परमात्मा के गुणों का विचार कर सिध्धात्व भाव का चिंतन करना ।
तथा तीन भुवन में पूज्य परमात्मा के प्रति लोकोत्तर विनय दर्शाने के लिए देव देवेन्द्रों ने स्नात्र महोत्सव किया था। प्रभु ने धर्ममार्ग को निष्कंटक रखने के लिए न्याय प्रणाली वाली राज्यव्यवस्था की स्थापना की। इन सबको छोडकर श्रमण जीवन अंगीकार कर केवली बने। इस प्रकार छद्मस्थावस्था का चिन्तन करना । केवली बनने के बाद धर्मतीर्थ प्रवर्ताने के लिए और अनेक बाल जीवों को भी उसकी उपादेयता समझाकर उसके तरफ प्रेरित किया वैसे वो प्रातिहार्यादि महान विभूति से विभूषित थे। अंत में पद्मासन मुद्रा का
15