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अथवा अंग - अग्र और भाव तीनों प्रकार की पूजा करना उसे भी सर्वोपचारी पूजा कही गयी है। अंग पूजा का फल विघ्नोपशांति है वह विघ्नोपशमिका कही जाती है। अग्रपूजा का फल आत्म विकास के रूप है अतः अभ्युदयसाधिनी और तीसरी भावपूजा का फल मोक्ष है अतः उसे निवृति कारिणी भावपूजा कही गयी है । इत्यादि तीन प्रकार भी अंगपूजादि के फलरूप गिनी जाती है। यहाँ उपचार शब्द का अर्थ पूजा करने के साधन का प्रकार समझना, पांच द्रव्यों से की जानेवाली पूजा उसे पंचोपचारी पूजा कही है।
(५) अवस्थात्रिक-तीन अवस्थाएँ :
भाविज्ज अवत्थ-तियं पिंडत्थ- पयत्थ-रूव- रहिअतं । छउमत्थ - केवलितं सिद्धतं चैव तस्सत्यो
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रूव-:
शब्दार्थ : - भाविज्ज-चिन्तन करना, अवत्थ-तियं तीन अवस्था, पिंडत्थ-पयत्य-रहियत्तं पिंडस्थ पदस्थ और रूपरहित अवस्था, छउमत्थ केवलितं छद्मस्थ और केवलि अवस्था, सिध्दत्तं सिध्द अवस्था, चेव निश्चय, तस्स उसका, अन्थो अर्थ है ।
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गाथार्थ :- पिंडस्थ, पदस्थ और रूपरहित अवस्था इन तीन अवस्थाओं का चिन्तन करना। और छद्मस्थ, केवलि और सिद्ध अवस्था उसका (अनुक्रमसे) अर्थ है।
विशेषार्थ :- ( १ ) पिंडस्थावस्था पिंड अर्थात् तीर्थकर पदवी प्राप्त होने से पूर्व का छद्मस्थदेह, अर्थात् जहांतक समवसरण की रचना न हुई हो वहां तक की अवस्था पिंडस्थ अवस्था कहलाती हैं। (पिंड= छद्मस्थ भाव में, स्थ= रही हुई अवस्था ) ये अवस्था तीन प्रकार की है। (१) जन्म अवस्था (२) राज्य अवस्था (३) श्रमण अवस्था, इन तीनो अवस्थाओं में तीर्थकर का जीव द्रव्यतीर्थकर कहलाता है। इन तीनो अवस्थाओं में भगवंत छद्मस्थ असर्वज्ञसाक्षात् तीर्थकर पदवी से रहित होते है।
अतः पिंडस्थभाव की अवस्था को छद्मस्थभाव की अवस्था कही गयी है।
(२) पदस्थावस्था :- पद = तीर्थकर पदवी, परमात्मा को जब कैवल्य की प्राप्ति होती है तब उनको तीर्थंकर की पदवी मिलती है। पवित्र तीर्थंकर नामकर्म के उदय के प्रभाव से देव देवेन्द्र आते है, समवसरण की रचना करते है। परमात्मा उसमे विराजमान होकर देशना देते है| देशना समाप्त होने पर गणधर पदवी के योग्य मुनिओं को त्रिपदी सुनाकर गणधर पद पर स्थापन करते है। परमात्मा की देशना से बोध पाकर संयम ग्रहण करनेवाली साधवीओं में से किसी एक को मुख्य साध्वी तथा देशविरति के धारक श्रावक, श्राविकाओं में से मुख्य श्रावक, मुख्य श्राविका, पद पर स्थापन करते है । विगेरे अनेक प्रकार से तीर्थ प्रवर्ताने प्रभु
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