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(२) प्रदक्षिणा त्रिक :- पूजा करने से पहले प्रार्थना करने के बाद प्रभु के दाहिनी ओर से भगवंत के गंभारे के चारों तरफ तीन बार प्रदक्षिणावर्त से भ्रमण करना, , उसे दूसरा प्रदक्षिणा त्रिक कहते है। प्रदक्षिणा में तीन बार भ्रमण करने का कारण, ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र की प्राप्ति तथा ये भक्ति बहुमान सूचक है। उस समय समवसरण में विराजमान भाव अरिहंत का चिंतन करना तथा भमती में चारों तरफ भगवंत विराजमान हों तो उन्हें वंदन करते हुए भ्रमण करना चाहिये (प्रव.सा., धर्म सं. भावार्थ) प्रदक्षिणा प्रथम निसीहि कहने के बाद देनी चाहिये। उसके बाद द्रव्यपूजा के लिए रंगमंडप में प्रवेश करते समय निसीहि कही जाती है। (श्राद्धविधि वृत्ति)
(३) तीसरा प्रणाम त्रिक :
अंजलि बढो अबोणओ अ पंचंगओ अ ति पणामा - बद्धो सव्वत्थ वा ति - वारं सिराह - नमणे पणाम-तियं ॥ || अन्वयः - अंजलि - बद्धो अद्रोणओ पंचंगओ ति-पणामा वा सव्वत्थ तिवारं सिराइ - नमणे पणाम तियं ॥ ९ ॥
शब्दार्थ :- अंजलि बद्धो = अंजलिपूर्वक, अद्रोणओ = अर्धावनत, पंचगओ=पांच अंगसे, तिपणामा तीन प्रणाम, वा= अथवा, सव्वत्थ- सभी स्थानो में (तीन प्रणाम), ति वारं तीन बार, सिराइ नमणे मस्तकादि झुकाने से, पणाम तियं प्रणाम त्रिक होता है।
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गाथार्थ :- अंजलि पूर्वक, प्रणाम अर्धावनत प्रणाम और पंचांग प्रणाम ये तीन प्रणाम है अथवा (भूमि आदि सभी स्थानो में) तीन बार मस्तक आदि झुकाने से भी तीन प्रकार के प्रणाम होते है ।
विशेषार्थ :- परमात्मा के दर्शन होते ही दोनों हाथ जोडकर दसों अंगुलियों को मिलाकर मस्तक पर स्थापना करना- अंजलिबद्ध प्रणाम कहलाता है । खडे होकर किंचित् मस्तक झुकाना, या मस्तक व हाथ के द्वारा भूमिस्पर्श या चरण स्पर्श करना, अर्थात् न्यूनाधिक पांच अंगों में से अंग झुकाकर प्रणाम करना अर्धावनत प्रणाम कहलाता है। और दो हाथ, दो घुटने और मस्तक इन पांचो अंग द्वारा भूमिस्पर्श कर प्रणाम करना पंचांग प्रणाम कहलाता है । अथवा उपरोक्त तीन प्रकार के प्रणामों में से कोई भी एक प्रणाम करते समय प्रथम मस्तक को झुकाकर मस्तक पर स्थापित अंजलि को दक्षिणावर्त (दाहिनी ओर से ) मंडलाकारे घुमाना, और इसी तरह तीन बार, अंजलि भ्रमण करते हुए तीन बार मस्तक झुकाना, उसे भी दूसरी रीत से तीन प्रकार के प्रणाम कहे जाते है।
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