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निसीहि त्रिक
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(१) जिनमंदिर दीवालवाला हो तो दीवाल के द्वार पर और न होतो जिनमंदिर प्रवेश द्वार पर प्रथम निसीहि कहना । जिससे प्रभुभक्ति के अलावा घर दुकान व्यापार, सामाजिक, देश विदेश परोपकार अनुकंपा सुपात्रदान विगेरे सभी कार्य में प्रवृत्ति न करने की प्रतिज्ञा होती है। मात्र प्रवेशद्वार तक कार्य की छूट रहती है प्रवेश करते ही सारी ही प्रवृत्तियां बंध हो जाती है, विचार तक नही कर सकते। मात्र मंदिर संबंधि (देख रेख संबंधि) बात कर सकते है, और मुनि महात्माओं को वंदन, व उनके साथ धर्म चर्चा करने की छूट रहती है।
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(२) केशर पुष्पादि द्रव्य सामग्री का थाल लेकर मंदिर के मध्य भाग में दूसरी निसीहि कही जाती है । दूसरी निसीहि कहने के बाद जिनमंदिर कार्य संबंधि प्रवृत्ति का भी निषेध हो जाता है । मात्र परमात्मा की द्रव्य पूजा भक्ति करने की छूट होती है।
(३) सभी तरह की द्रव्यपूजा कर लेने के बाद चैत्यवंदन से पूर्व भावपूजा में लीन होने के लिए तिसरी निसीहि कही जाती है। जिसके बाद द्रव्यपूजा का भी निषेध हो जाता है। मात्र भावपूजा की छूट रहती है अर्थात् भाव पूजा में उपयोगी चैत्यवंदन, स्तवन, कायोत्सर्ग स्तुति आदि करने की छूट रहती है।
अथवा तीनो स्थान पर मन वचन काया की प्रवृतिओं का निषेध सूचन करने के लिए तीन तीन बार भी निसीहि निसीहि, निसीहि, कही जाती है, अर्थात् प्रवेशब्दार, मध्यभाग, में व चैत्यवंदन से पूर्व तीन तीन बार निसीहि शब्द का प्रयोग करने पर भी तीन ही निसीहि गिनी जाती है।
मुनिभगवंत व पौषधव्रतधारी श्रावक के पास द्रव्यपूजा सामग्री नही होने से मुख्य प्रवेश द्वार पर ही प्रथम निसीहि एक बार या तीन बार उच्चारण करने की होती है। इस निसीहि से शेष मुनिचर्या और पोषधचर्या का त्याग हो जाता है। जिनमंदिर संबंधि उपदेश योग्य व्यवस्था का निषेध करने के लिए दूसरी निसीहि रंगमंडप मे प्रवेश करते समय कही जाती है और चैत्यवंदन के प्रारंभ में तीसरी निसीहि कही जाती है।
तीर्थ या जिनमंदिर की देखरेख बराबर न हो, व्यवस्था में खामी हो तो उन्हें दूर करने के लिए मुनिभगवंतों का (सर्व सावद्य के त्यागी होने पर भी) उपदेश देने का अधिकार है, और श्रावकों के गैर जिम्मेदारी वाले रवैये से विनाश हो रहे, तीर्थो को बचाने के लिए शक्ति संपन्न श्रावकों को उपदेश देना चाहिये श्रावको को गलत लगेगा ऐसा सोचकर मुनिभगवंत उपेक्षा करते है, तो वो श्री जिनेन्द्र प्रभु की आज्ञा के आराधक नही है. परमात्मा की आज्ञा ये सर्वोपरी धर्म है अतः चैत्य की अव्यवस्था दूर करने के व्यापार का निषेध मुनि को व व्रतीगृही ( व्रतधारी) को इस दूसरी निसीहि में हो जाता है।