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विशेषार्थ :तीन निसीहि
तीन दिशाओं तरफ देखने का त्याग तीन प्रदक्षिणा तीन बार पैर की भूमि की प्रमार्जना तीन प्रणाम
तीन वर्णादिक का आलंबन तीन पूजा
तीन मुद्राएँ तीन अवस्थाओं का चिंतन तीन प्रणिधान निसीहि =निषेध, रोकना; प्रदक्षिणा-प्रभुको फिरती प्रदक्षिणा देना , अवस्था प्रभु के जीवन के मुख्य प्रसंग, त्रिदिशि निरीक्षण प्रभु के मुख तरफ दृष्टि , शेष तीन दिशाओं तरफ नहीं देखना । प्रमार्जना भूमि को साफ करना (जीव जन्तु की रक्षा के लिए) आलंबन-भाव वृद्धि में सहाय रूप , मुद्रा-भाव सूचक आकृति, प्रणिधान= मन, वचन, काया की एकाग्रता! इन दसोंही त्रिकों का विस्तार अगली गाथा में कहा जायेगा। |विस्तार पूर्वक दशत्रिक का वर्णन
(1) तीन निसीहि घर -जिणहर -जिणपूआ-वावार-बायओ.निसीहि-तिगं । अग्ग -हारे मझे तइया चिह-वंदणा समए ॥८॥
(अन्वय:-अग्गद्दारे माझे तइया चिइ-वंदणा समये घर - जिणहर - जिणपूआ - वावार-च्चायओ निसीहि-तिगं।
शब्दार्थ :-घर-जिनहर-जिण-पूआ-वावार-च्चायओ-घर जिनमंदिर और जिनपूजा की प्रवृति के त्याग को लेकर, निसीहि -तिगं-तीन निसीहि, अग्गहारे मुख्य द्वार पे, मझे= मध्यमें, तहया तिसरी, चिइ - वंदणा-समये चैत्यवंदन के समय ।
गाथार्थ :- मुख्यदारपर ,मध्यमें और तीसरी चैत्यवंदन के समय (अनुक्रम से) घर, जिनमंदिर और जिनपूजा की (द्रव्य) प्रवृत्ति के त्याग को लेकर तीन प्रकार की निसीहि होती है।
विशेषार्थ :- निसीहि अर्थात् निषेध. जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति के महानकार्य में मग्न होने से पूर्व अन्य प्रवृतिओं में से मन,वचन और काया की प्रवृत्ति को रोक लेनी चाहिए || मन यदि अन्य प्रवृत्ति में चला जाता है तो भक्ति का वास्तविक आंनद नहीं आ सकता, अत: भक्ति में प्रणिधान करना अर्थात् मन वचन काया की एकाग्रता बनाये रखना। ये तीनो निसीहि जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति में उत्तरोत्तर भाववृद्धि के विकास की सूचक है।