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विशेषार्थ:-स्वपक्षः पुरुष को लेकर पुरुष स्वपक्ष और स्त्री को लेकर स्त्री स्वपक्ष है। परपक्षः पुरुष की अपेक्षासे स्त्री, और स्त्री की अपेक्षा से पुरुष परपक्ष है।
इस प्रकार स्व पक्ष, परपक्ष दोनो ही दो दो प्रकार के है। स्वपक्ष वाले को ३॥ तीन । हाथ, व परपक्ष वाले को १३ हाथ गुरु से दूर रहकर वंदनादि क्रियाएँ करनी चाहिये
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स्वपक्ष
अवग्रह
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अवग्रह परपक्ष १) गुरु से साधुको . ३॥ हाथ १) गुरु से साध्वी को १३ हाथ २) गुरु से श्रावक को ३॥ हाथ २) गुरु से श्राविका को १३ हाथ ३) गुरुणीजी से साध्वी को ३॥ हाथ ३) साध्वी से साधुको १३ हाथ ४) गुरुणीजी से श्राविका को ३|| हाथ ४) साध्वी से श्रावक को १३ हाथ ___ इस कहे हुए अवग्रह में गुरु या गुरुणीजी की अनुमति बिना प्रवेश नही करना चाहिये। अवग्रह के पालन से गुरु के विनय रुप मर्यादा का पालन होता है। गुरु की आशातना ओं से बचते है। तथा शील-सदाचार का पालन अच्छी तरह होता है। इस प्रकार अनेक गुणों की प्राप्ति के कारण श्री जिनेश्वर भगवन्तो अवग्रह की मर्यादा दर्शायी गयी है। अत: उसका सम्यक प्रकार से पालन करना ही परम कल्याण का कारण है।
अवतरण:- वंदन सूत्र के सर्वाक्षरो की संख्या रुप १७ वां ब्दार तथा पदों की संख्या रुप १८ वा दार, इस गाथा में दर्शाया गया है।
पणतिग बारसद्ग तिग, चउरो छडाण पय इगुणतीसं ।
गुणतीस सेस आवस्सयाइ, सव्वपय अडवला ॥३२॥ शब्दार्थ:- गाथार्थ के अनुसार सुगम है।
गाथार्थ:- १७ वाँ अक्षर दार सुगम होने के कारण नहीं कहा, और १८ वाँ पद दार, इस प्रकार (वंदन के आगे कहे जाने वाले ६ स्थान के विषयमें अनुक्रम से) ५-३-१२-२३-४ इन छ स्थानो में २९ पद है। तथा शेष रहे हुए अन्य भी आवस्सि आए' इत्यादि २९ पद हैं। जिससे सर्व पद ५८ हैं। ॥३२॥
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