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शब्दार्थ:- उवएस-उपदेश-आदेश-आज्ञा, उवदसणत्थ-दर्शाने के लिए, जिणबिंब सेवणा=जिनेश्वर प्रतिमाकी सेवा, आमंतणं आमंत्रण, सहलं-सफल. ___ गाथार्थ:- साक्षात् गुरुका विरह हो तब (गुरुकी) स्थापना की जाती है। और वह स्थापना गुरु की आज्ञा दर्शाने के लिए होती है। (इसलिए गाथा में दर्शाये गयेच शब्द से ... स्थापना विना धर्मानुष्ठान नही करना )(उसके दृष्टान्त) जब साक्षात् जिनेश्वर का विरह होता है तब जिनेश्वरकी प्रतिमाकी सेवा और आमंत्रण सफल होता है। (वैसे ही गुरुके विरह में उनकी प्रतिमा स्थापना समक्ष किये गये धर्मानुष्ठान सफल होते हैं) ॥३०॥
भावार्थ:- गाथार्थवत् सुगम है। तात्पर्य यह है कि स्थापना के समय सामायिक प्रतिक्रमण गुरु वंदन आदि धर्मनुष्ठान करते समय गुरु के सामने ही धर्मक्रियाएं कर रहे है, आदेश भी गुरु से ले रहे हैं। और साक्षात् गुरु महाराज ही आदेश दे रहे हैं। ऐसा मानकर श्रद्धापूर्वक धर्मक्रियाएँ करने पर सफल बनती है। . . ___ श्रीजिनेश्वर परमात्मा के शासन में गुरु का अत्यंत मान है। उनकी सेवा-सुश्रुषा'
और भक्ति मात्र से भी भवसिन्धुसे पार हो सकते है। अतः गुरुकी आशातनासे बचना चाहिये । शिष्य को गुरु का संपूर्ण विनय करना चाहिये । इस गाथा में गुरुका अत्यंत महत्व है, स्पष्ट नजर आता है।
... अवतरण:-अवग्रह, दूरी,गुरु से कितना दूर रहना चाहिये । इस विषय पर १६ वाँ दार।
चउदिसि गुरुग्गहों इह, अहुह तेरस करे सपरपक्खे ।
अणणुनायस्स सया, न कप्पए तत्थ पविसेउं ||३१|| - शब्दार्थ:- उग्गही अवग्रह, अह अथ, अब, उठ-साड़ा तीन (हाथ), स । (पक्खे) स्व (पक्ष में), परपक्खे-पर पक्ष में, अणणुन्नायस्स-गुरु की अनुमती नहीं ली हो उसको
गाथार्थ:- अब यहाँ चारों दिशाओ में गुरु का अवग्रह स्वपक्ष के विषय में ३|| हाथ. . है, और परपक्ष के विषय में १३ हाथ है। इसलिए उस अवग्रह में गुरु की अनुमति नहीं हो ऐसे साधुको कभी प्रवेश करना उचित नहीं । ॥३१॥