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स्वामी ने स्थापना कल्प में कहा है। तथा वराटक ये तीन लाईन वाले कोडे होते है। वर्तमान काल में स्थापना चार्य तरीके इसका उपयोग देखने में नहीं आता है। इस में भी गुरु की स्थापना हो सकती है। इस असद्भाव स्थापना समजना। क्योंकी इस में गुरु समान पुरुष आकार नहीं है। ___ तथा चंदन या अन्य उत्तम काष्ट को घड़ कर गुरु मूर्ति बनाकर उसमें ३६ गुणों का आरोपण प्रतिष्ठा विधि दारा कर, गुरु तरीके मानना-उसे सद्भाव स्थापना समजना |
चारित्र के उपकरण जैसे इंडा या ओघे की डांडी विगैरे में गुरु की स्थापना करना, ये काष्ट संबंधि असद्भाव स्थापना है।
पुस्त अर्थात् लेप्य कर्म याने रंग विगेरे से गुरु की मूर्ति आलेखना अथवा पुस्तक जो ज्ञान का उपकरण है उसे गुरु तरीके स्थापन करना, इसे गुरुस्थापना समजना। तथा चित्रकर्म याने पाषाण आदि पदार्थोको घड़कर गुरुमूर्ति बनायी हो उसे गुरु तरीके स्थापन करना । पुस्त-चित्रकर्मादि में स्व बुद्धि से सद्भाव असद्भाव स्थापना संबंधि विचार यथायोग्य करना।
उपरोक्त दोनों प्रकार की स्थापना गुरु वंदन या धर्म क्रिया के अल्पकाल के लिए स्थापना उसे इत्वर स्थापना कहते है। तथा प्रतिष्ठादि विधि से की गयी स्थापना जो द्रव्य (वस्तु) जहाँ तक रहता हैं वहाँ तक गुरु तरीके माना जाता है उसे यावत् कथित स्थापना कहते है।(यावत् जहाँतक (वस्तु टीकती है) वहाँ तक कथितः कही गयी उसे यावत्कथित ऐसा शब्दार्थ है) इस स्थापना को साक्षात् गुरु मानकर धर्मक्रिया करना, और गुरु की तरह स्थापनाजी की भी आशातना नही करना ।
*** अवतरण:- गुरु की अनुपस्थिति में स्थापनाका क्या प्रयोजन ? उसने कार्य सिद्धि कैसे हो सकती है ? जिसे इस गाथा में दृष्टान्त सहित इस गाथा में दर्शाया गया है।
गुरु विरहमि ठवणा, गुरुवर सोवदंसणत्यं च |
जिण विरहंमि जिणबिंब - सेवणा मंतणं सहलं ॥३०॥ (१) वर्तमान काल में खरतर गच्छ के मुनि छोटी पेटी में चंदन की, सोगठे के आकार वाली (पांच सोगठे) असद्भाव स्थापना रखते है। जो पंचपरमेष्ठि सूचक है। (२) ये अर्थ चित्र कर्म में भी करना हो तो कर सकते है।
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