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तीन की स्थापना करना (याने ज्ञान-दर्शन और चारित्र के उपकरण को गुरु तरीके मानकर सद्भूत स्थापना करना ) ॥२८॥ भावार्थ:- गाथार्थवत् सुगम है।
*** .: अवतरण:- इस गाथा में पूर्व गाथा में कथित अक्खाइ याने अक्ष विगेरे से कौन .. कौन से पदार्थों में गुरु की स्थापना करना, तथा स्थापना कितने प्रकार की होती है? उसकी काल मर्यादा कितनी ? ये इस गाथा में दर्शाया गया है।
अक्खे वराइए वा, कहे पुत्थे च चित्तकम्मे अ |
सब्भाव मसब्भावे, गुरुहवणा इत्तरावकहा || २७॥ . शब्दार्थ:- अक्खे अक्ष (में), वराइए=वराटक, कोड़ा, सब्भाव-सद्भाव स्थापना, . असब्भाव असद्भाव स्थापना, इत्तरा-इत्त्वर, अल्पकाल की, आवकहा = यावत् कथित,
सदैव केलिए | गाथार्थ:- गुरु की स्थापना अक्षमें, वराटक-कोडेमें, काष्टमें, पुस्तमें,और चित्रकर्म :
(मूर्तिरुप आकृति मै) में, की जाती है, वह 'सद्भाव और असद्भाव स्थापना रुप दो प्रकार की है। पुनः (दोनो स्थापनाएँ) इत्वर और यावत्कथित दो-दो प्रकार की है। ॥२९॥ ... भावार्थ:- अक्ष:- याने अरिया जिसका प्रयोग वर्तमान काल में मुनिभगवन्त स्थापना रुप मे करते हैं। ये समुद्र में शंख की तरह पाया जाता है, दीन्द्रिय जीवों का क्लेवर अचित शरीर हैं। शंख की तरह उत्तम पदार्थ होनेसे शास्त्र में इस में गुरु की स्थापना करने को कहा है। तथा उसके लक्षण और फल विगेरे के बारे में चौद पूर्वधर श्री भद्रबाहु १. गुरु समान आकृतिवाली गुरु की मूर्ति सद्भूत स्थापना । और पुरुषाकार विना अन्य किसी आकार वाली वस्तु में गुरु के गुणों का आरोपण उसे असद्भूत स्थापना कहते हैं। इन दोनो स्थापनाओं को गाथा में गर्भित रुप से दर्शाया है। २. वर्तमान काल में अक्ष आदि की स्थापना साधुपरंपरा के मूल गुरु सुधर्मास्वामी गणधर भगवन्तं की है। अन्य सभी गणधरों ने केवलज्ञान प्राप्तकर अपनी शिष्य संपदा को भी सुधर्मास्वामी को सौंपी थी, इसी कारण से श्री वीरप्रभु ने वर्तमान शासन श्री सुधर्मा गुणधर को सोंपा था उनकी ही शिष्य परंपरा पंचम आरे के अंत तक चलेगी।
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