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- श्री चैत्यवंदन भाष्य ___ मंगलाचरण : विषय : परंपरा संबंध : प्रयोजन : अधिकारी:
वंदित्तु वंदणिजे सव्वे चिह- बंदणाऽऽ सु-वियारं । बहु-वित्ति- भास -पुण्णी-सुयाऽणुसारेण -बुच्छामि ॥१॥
(अन्वय - सव्वे वंदणिज्जे, वंदित्तु, बहु-वित्ति-भास-चुण्णी- सुयाऽणुसारेण चिंइ- वंदणाऽऽइ सुवियारं वुच्छामि)
शब्दार्थ : - वंदितु = वंदन करके, वंदणिजे = वंदन करने योग्य, सव्वे : सभी को या सर्वस्व जानने वाले-सर्वज्ञ को, चिइ-वंदणाऽऽइ सुवियारं =चैत्यवंदन आदि का सुअर्थात् व्यवस्थित विचार, बहुवित्ति-भास-चुणी- सुयाऽणुसारेण = अनेक टीकाएंभाष्य-घुणियाँ और आगम के अनुसार, वुच्छामि = कहता हुं।
गाथार्थ :- वंदन करने योग्य सर्वज्ञों को वंदन करके, अनेक टीकाएँ भाष्य चुणियाँ और आगम के अनुसार, चैत्यवंदन आदि का(सुविचार) व्यवस्थित विचार कहता हूं। ___ विशेषार्थ :- सव्वे तक मंगलाचरण है । सुविचार तक ग्रंथ का विषय दर्शाया है । यहाँ तीनों ही भाष्यरूप एक विस्तृत ग्रंथ समझना है क्योंकि - चिइ-वंदणाइ-सुवियारं-में आदि पद से चैत्यवंदन-गुरुवंदन और प्रत्याख्यान इन तीनों ग्रंथों का सुविचार कहना है , जिससे ग्रंथ का नाम भाष्यत्रयम रखा गया है । .. शेष बहु वित्ति आदि पदो से ये ग्रंथ परंपरागत है ऐसा संबंध दर्शाया है और ग्रंथकार को इस विषय का ज्ञान अपने गुरुओं से परंपरा से प्राप्त हुआ है, ऐसा गुरु परंपरा | संबंध भी गर्भित रीत से दर्शाया है।
जैनधर्म की आराधना करने की इच्छावाले भव्यजीव इस ग्रंथ को पढने-समझने के अधिकारी है तथा अल्प बुद्धिवाले जीवों के लिए बहुत सारे भाष्य चुणियाँ आदि ग्रंथों को समझ पाना कठिन है, अत: बालजीवों के बोध के लिए संक्षेप मे नूतनग्रंथ रचने का प्रयोजन है। स तथा ग्रंथकार का बालजीवों पर उपकार करने की बुद्धिरुप उतम भावना से कर्म निर्जरा, अध्ययन करनेवाले तथा कथनानुसार आचरण करनेवाले को आचार का ज्ञान होने