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से, ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा तथा उत्तम आचार के पालन से पुराने पापकर्मो की निर्जरा और इस प्रकार की निर्जरा से परंपरा दारा ग्रंथकार को और अध्ययन करनेवाले को मोक्ष मिले,इस प्रकार दोनों का अंतिम परंपरा प्रयोजन है !अर्थात ग्रंथकार परंपरा से मोक्ष प्राप्त करने के हेतु से ग्रंथ की रचना करते है ! और अध्ययन करने वाले का उद्देश्य भी मोक्ष प्राप्ति के लिए होता है और ऐसे ही उद्देश्य से पढना चाहिए । संबंध की जानकारी के लिए पंचांगी का स्वरूप हमें जानना चाहिए ।
पंचांगी का बोध सूत्रः-तीर्थकर परमात्मा केवलज्ञान के द्वारा जाने हुए लोकाऽलोक के तीनों ही काल के सर्व द्रव्य क्षेत्र काल और भावका उपदेश देते है और उपदेशरूप में कही हुई बातों को गणधर.भगवंत सूत्र रूप में गूंथते (रचना करते) है ये तथा १० वें से १४ वें पूर्व तक के ज्ञाता श्रुतज्ञानी और प्रत्येक बुद्ध महात्मा,प्राणीओं के अनुग्रह के लिए जो ग्रंथ रचना करते है उसे भी सूत्र कहा जाता है । अंग उपांग आदि पवित्र मूल आगम है।।
नियुक्ति :- सूत्र के साथ में गर्भित तरीके संबंध रखने वाले पदार्थो का नय निक्षेप अनुगम पूर्वक निरुपण कर सूत्र के स्वरुप को समझावे उसे नियुक्ति कहते है, प्राकृत गाथाबद्ध, प्राय: चौदपूर्वधरकृत नियुक्ति प्रसिद्ध है।
- भाष्यः-सूत्र और नियुक्ति में जो महत्व की बात कही गयी हो उसे संक्षेप मे सही स्वरुप मे समझावे उसे भाष्य कहते है ।
चर्णि:-उपरोक्त तीनो ही ग्रंथ की प्रत्येक हकिकत को स्पष्ट करके समझावे उसे चूर्णि कहते है। और ये लगभग प्राकृत भाषा में होती है, उसमें संस्कृत भाषा का मिश्रण भी देखने में आता है।
. वृत्ति-उपरोक्त चारों ही ग्रंथो को लक्ष्य में रखकर आवश्यकता अनुसार विस्तार से संस्कृत भाषा में रची गयी जैनागमों की टीका, उसे वृत्ति कही जाती है । । इन्हें जैनागम के पांच अंग कहे जाते है और वर्तमान में बहुत से सूत्रों के पाचों ही अंग विद्यमान है। तीर्थकंर परमात्मा का उपदेश-आत्मागम |
गणधर भगवंतो की सूत्र रचना-अनन्तरागम और उसके बाद की उसे अनुसरने वाली सुविहित पुरुषों की सर्व रचनाएं परंपरागम कहलाती है ।
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