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________________ तीसरा दार (: अवंदनीय साधु) अवतरण:- इस गाथा में पांच अवंदनीय साधु का तीसरा दार कहा गया है। पासत्यो ओसनो, कुसील संसत्तओ अहाउंदो । दुग-दुग-ति-दु-णेगविहा,अवंदणिज्जा जिणमयंमि ||१३|| | शब्दार्थ:- शब्दों के अर्थ गाथार्थ वत् सुगम है। गाथार्थ:- पार्श्वस्थ (पाशस्थ) अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाछंद (ये ५ प्रकार के साधु अनुक्रम से) २-२-३-२ अनेक प्रकार के है, और वे जैनदर्शन के विषय में अवंदनीय (वंदन के अयोग्य) कहे गये है। ॥१२॥ - विशेषार्थ:- पांच अवंदनीय पार्श्वस्थादि साधुओं का किंचित् स्वरुप इस प्रकार है। (१)पार्श्वस्थ (पाशस्थ) साधु के २ भेद है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र के पार्श्व-पास में, स्थ रहे (ज्ञानादि को पास में रखे लेकिन आचरण नहीं करे) उसे पाशस्थ कहते है। अथवा कर्म बंधन के हेतुरुप मिथ्यात्व विगेरे के पाश= • (जाल) में रहे उसे पार्श्वस्थ कहते है। ये दो प्रकार के हैं (१) सर्व पाशस्थ (२) देश पाशस्थ (१) सम्यग् दर्शन ज्ञान-चारित्र से रहित केवल वेशधारी हो उसे सर्व पाशस्थ कहते है। (२) शय्यातराहत पिंड', राजपि, नित्यपिंड', तथा अग्रपिंड विगेरे को बिना कारण से उपयोग करे, कुलनिश्रा में विहार करे, 'स्थापना कुल में प्रवेश करे, संखड़ी (गृहस्थों के जिमनवार) देखता फिरे, और गृहस्थों की स्तवना करे, ऐसे साधु को देश पाशस्थ कहा गया है। ये दोनो ही प्रकार के पार्श्वस्थ साधु अवंदनीय है। (१) जिसके मकान में रहे हों, उसके घर से आहार लेना, उसे शय्यातराहत पिडं कहते है। (२) राजा या मुख्य अधिकारी के घर का आहार लेना, उसे राजपिंड कहते है। (३) एक ही घर से प्रथम की हुई निमंत्रणा के अनुसार प्रतिदिन आहार लेना उसे नित्यपिंड कहा जाता है। (४) चावल विगेरे पदार्थ का उपरी भाग (गृहस्थ अपने लिए आहार रखे उससे पहले) आहार रुप में लेना उसे अग्रपिड कहते हैं 95
SR No.022300
Book TitleBhashyatrayam Chaityavandan Bhashya, Guruvandan Bhashya, Pacchakhan Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSankat Mochan Parshwa Bhairav Tirth
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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