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________________ ज्ञानसार विजयपताका आकाश में उन्नत हो सदैव लहराती रहती है। मुनिजीवन का न जाने कैसा सुरम्य, सुन्दर चित्र परम श्रद्धेय उपाध्यायजी महाराज ने हमारे सामने प्रस्तुत किया है कि बरबस मन मुग्ध हो उठता है । मुनि का उन्होंने राजसिंहासन पर अभिषेक कर 'मुनिराजा का साम्राज्य सदा-सर्वदा विजयवन्त हो !' की ललकार लगायी है । तब स्नेहस्निग्ध भाव से दबे स्वर में उन्हें अजरामर संदेश दिया है : "मुनिराज ! अब तुम राजा बन गये हो ! अपने उपशम-साम्राज्य के एकमेव बलशाली, शक्तिशाली सम्राट ! सावधानी के साथ इसका संचालन और संरक्षण करना, इसमें जरा भी भूल न हो जाए।" और जब मुनिराज को परेशान, उद्विग्न-मन, घबराते देखते हैं, तब अपने मुख पर मधुर मुस्कान लाकर कहते हैं : "मेरे राजा ! इस तरह घबराने से, परेशान होने से काम नहीं चलेगा । तुम्हारे पास सर्व शक्तिशाली सेनायें और अक्षय शस्त्रभण्डार है। फिर भय और उद्विग्नता किस बात की ? तुम हयदल और अश्वदल / ज्ञान और ध्यान के एकमात्र अधिपति हो, शक्तिमान संचालक !- हयदल की गगनभेदी चिंघाड से समस्त शत्रुओं के... राग-द्वेष के छक्के छूट जायेंगे और तब अभेद्य मोर्चाबन्दी को भेदकर वे एक कदम भी आगे बढ़ नहीं पायेंगे-फलतः अश्वदल के उत्तुंग अश्वों पर आरूढ हो, निश्चिन्त बन क्रीडा करते रहना ।" समतायोग की रक्षा मुनिश्रेष्ठ ज्ञान-ध्यान के बल पर सरलता से कर सकते हैं और ज्ञान-ध्यान के माध्यम से ही योगीज़न समतायोग की भूमिका निभा सकते
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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