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________________ ५६७ परिशिष्ट : पुद्गलपरावर्त काल अतीत काल से अनंत गुना ज्यादा भविष्य काल है । अर्थात् अनागत काल में जो पुद्गल परावर्त हैं वे अतीत काल से अनन्त गुना ज्यादा हैं । यह' 'पुद्गल परावर्त' चार तरह का है : (१) द्रव्य पुद्गल परावर्त (२) क्षेत्र पुद्गल परावर्त (३) काल पुद्गल परावर्त - (४) भाव पुद्गल परावर्त ____ ये चारों पुद्गल परावर्त २-२ तरह के हैं : (१) बादर (२) सूक्ष्म (१) बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्त : ___ एक जीव संसार-अटवी में भ्रमण करता हुआ, अनंत भवों में औदारिकवैक्रिय-तैजस-कार्मण-भाषा-श्वासोच्छवास और मन रुप सर्व पुद्गलों को (१४ राजलोक में रहे हुए) ग्रहणकर, भोगकर रख दे... इसमें जितना समय लगे उतना काल बादर द्रव्य पुद्गल परावर्त काल कहलाता है । (आहारक शरीर को तो एक जीव मात्र चार बार ही बनाता है। अर्थात् पुद्गलपरावर्त काल में वह उपयोगी नहीं होने से उसे नहीं लिया (२) सूक्ष्म द्रव्य पुद्गलपरावर्त : औदारिक आदि शरीरों में से किसी एक शरीर से एक जीव संसार में परिभ्रमण करता हुआ सब पुद्गलों को पकडकर, भोगकर छोड़ दे, उस काल को सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्त कहते हैं । विवक्षित शरीर के अलावा दूसरे शरीर से जो पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं और भोगे जाते हैं वे नहीं गिने जाते हैं । (३) बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्त : क्रम से या उत्क्रम से एक जीव लोकाकाश के सब प्रदेशों को मृत्यु से स्पर्श करने में जितना समय लगाता है उस कालविशेष को बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्त कहते हैं । अर्थात् चौदह राजलोक के असंख्य आकाश प्रदेश (आकाश का एक ऐसा भाग कि जिसका और भाग न हो सके) हैं । इन एक एक आकाशप्रदेश में उस जीव की मृत्यु होती है। इसमें जो समय लगता है उसे 'बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त' कहते हैं। २. पोग्गलपरियट्टो इह दव्वाइ चठव्विहो मुणेयव्वो।'-प्रवचनसारोद्धार
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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