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ज्ञानसार
सम्यकत्व की प्रथम स्थिति में संक्रमण कराता है। सम्यक्त्व के प्रथम स्थितिगत दलिकों को भोगकर क्षय करता है। इस तरह क्रमशः दर्शनत्रिक का क्षय होने के उपरान्त उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है। दार्शनत्रिक की उपर्युक्त स्थिति में रहे हुए दलिकों का उपशमन करता है । इस प्रकार दार्शनत्रिक का उपशमन करते हुए प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानक में सैकड़ों बार आवागमन करता हुआ वापिस चारित्र मोहनीय का उपशमन करने के लिए प्रवृत्त होता है।
चारित्र मोहनीय का उपशमन :
चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन करने के लिए पुनः तीन करण करने पड़ते हैं । उसमें यह विशेष है कि यथाप्रवृत्तिकरण अप्रमत्त गुणस्थानक में होता है। अपूर्वकरण अपूर्वकरण गुणस्थानक में होता है । अपूर्वकरण में स्थितिघातादि पाँचो कार्य होने के बाद अनिवृत्तिकरण गुणस्थानक में अनिवृत्तिकरण करता है। यहाँ भी पूर्वोक्त पाँचों कार्य होते हैं।
अनिवृत्तिकरण-काल के संख्यात भाग बीत जाने के बाद मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों का अन्तरकरण करता है । (दर्शन सप्तक के अलावा २१ प्रकृति) वहाँ जो वेद और संज्वलन कषाय का उदय हो उसके उदयकाल प्रमाण प्रथम स्थिति करता है। शेष ११ कषाय और ८ नोकषाय की आवलिका-प्रमाण प्रथम स्थिति करता है।
___ अन्तरकरण करके अन्तर्मुहूर्त काल में नपुंसकवेद का उपशमन करता है। उसके बाद अन्तर्मुहर्त काल में स्त्रीवेद का उपशमन करता है। उसके बाद अन्तर्मुहूर्त में हास्यादि षट्क का शमन करता है और उसी समय पुरुषवेद के बन्ध-उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है । इसके उपरान्त दो आवलिका काल में (एक समय कम) सम्पूर्ण पुरुषवेद का विच्छेद करता है।
फिर अन्तर्मुहूर्त काल में एक साथ ही अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकषाय का उपशमन करता है। ये उपशान्त होते ही उसी समय संज्वलन क्रोध के बन्ध-उदयउदीरणा का विच्छेद होता है । इसके बाद आवलिका (एक समय कम) में संज्वलन क्रोध का उपशमन करता है। काल के इस क्रम से ही अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरण मान का एक साथ ही उपशमन करता है। फिर संज्वलन मान का उपशमन करता है। (बन्ध-उदय-उदीरणा का विच्छेद करता है ।)
इसके उपरान्त वह लोभ का वेदक बनता है । लोभवेदनकाल के तीन विभाग है :