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ज्ञानसार
दूसरा मत यह है कि अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशमन अप्रमत्त-संयत ही नहीं परन्तु अविरत, देश - विरत, प्रमत्त-संयत, अप्रमत्त - संयत भी कर सकते हैं । परन्तु दार्शनत्रिक (सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय मिथ्यात्व मोहनीय) का उपशमन तो संयत ही कर सकता है, यह सर्वसम्मत नियम है ।
अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशमन :
• ४-५-६-७ गुणस्थानकों में से किसी एक गुणस्थानक में रहता है । • तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या में से किसी एक लेश्यावाला ।
• मन, वचन, काया के योगों में से किसी योग में वर्तमान ।
• साकार उपयोगवाला ।
• अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थितिवाला ।
• श्रेणी के करण - काल पूर्व भी अन्तर्मुहूर्त काल तक विशुद्ध चित्तवाला | • परावर्तमान प्रकृतियां (शुभ) बांधनेवाला ।
प्रति समय शुभ प्रकृति में अनुभाग की वृद्धि और अशुभ प्रकृति में अनुभाग की हानि करता है । पहले कर्मों की जीतनी स्थिति बांधता था अब उन कर्मों की पहले के स्थितिबन्ध की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून स्थिति बांधता है I
इस तरह अन्तर्मुहूर्त पूर्ण होने के बाद यथाप्रवृत्ति - करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करता है । हर एक करण का समय अन्तर्मुहूर्त होता है । फिर आत्मा उपशमकाल में प्रवेश करती है ।
यथाप्रवृत्तिकरण में व्यवहार करती आत्मा (प्रति समय उत्तरोत्तर अनन्तगुण विशुद्ध होने से) शुभ प्रकृतियों के रस में अनन्तगुनी वृद्धि करते हैं । अशुभ प्रकृति के रस में हानि करते हैं, पूर्व स्थितिबन्ध की अपेक्षा से पल्योपम के असंख्यात भाग न्यून... न्यून... स्थितिबन्ध करता है । परन्तु यहाँ स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि या गुणसंक्रम नहीं होता है, क्योंकि उसके लिए आवश्यक विशुद्धि का अभाव होता है ।
अन्तर्मुहूर्त के बाद अपूर्वकरण करता है । यहाँ स्थितिघात आदि पाँचों होते हैं। अपूर्वकरणकाल समाप्त होने के बाद अनिवृत्तिकरण होता है, इसमें भी स्थितिघातादि पाँचों होते हैं । इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त का ही होता है । इस अनिवृत्तिकरण का संख्यात भाग बीतने पर जब एक भाग बाकी रहता है तब अन्तरकरण करता है ।