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• चौदह पूर्व के ज्ञानी मनुष्यों का आहारक शरीर होता है ।
• सर्व गति के सर्व जीवों का तैजस और कार्मण शरीर होता है ।
शरीरों का प्रयोजन :
• औदारिक शरीर से सुख-दुःख का अनुभव करना, चारित्र धर्म का पालन करना . और निर्वाण प्राप्त करने का कार्य होता है ।
• वैक्रिय शरीरवाले जीव अपना स्थूल एवं सूक्ष्म अनेक रुप कर सकते हैं। शरीर लम्बा या छोटा बना सकते हैं ।
आहारक शरीर, चौदह पूर्वधर ज्ञानी पुरुष आवश्यकता होती है तब ही बनाते हैं। आहारक वर्गणा के पुद्गलों को ज्ञानबल से खींचकर यह शरीर बनाते हैं। वे इस शरीर के माध्यम से महाविदेह क्षेत्र में जाते हैं, वहाँ तीर्थंकर भगवन्तों से अपने संशयों का निराकरण करते हैं, फिर शरीर का विसर्जन कर देते हैं ।
ज्ञानसार
• तैजस शरीर खाये हुए आहार का परिपाक करता है। इस शरीर के माध्यम से शाप दे सकते हैं और आशीर्वाद भी दे सकते हैं ।
• कार्मण शरीर द्वारा जीव एक भव से दूसरे भव में जाता
है 1
इन पाँचो शरीर से आत्मा की मुक्ति हो तब ही आत्मा सिद्ध हुआ ऐसा कह । मुक्त होने का पुरुषार्थ औदारिक शरीर से होता है ।
१८. बीस स्थानक तप
'कर्मणां तापनात् तपः' कर्मों को तपावे नष्ट करे उसे तप कहते हैं । ऐसे तरह तरह के तप शास्त्रों में बताये गये हैं। तीर्थंकर नामकर्म बन्धानेवाला मुख्य तप बीस स्थानक की आराधना का तप है ।
सकते हैं
होती है ।
नीचे के सात स्थानों में अनुराग, गुण-स्तुति और भक्ति - सेवा, ये आराधना करनी
(१) तीर्थंकर : अष्ट प्रातिहार्य की शोभा के योग्य ।
(२) सिद्ध : सर्व कर्मरहित, परम सुखी और कृत-कृत्य ।
(३) प्रवचन : द्वादशांगी और चतुर्विध संघ ।