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________________ परिशिष्ट : कर्मस्वरुप ५४५ १४. कर्मस्वरुप अनादि अनंत काल से जीव कर्मों से बन्धा हुआ है । जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । इससे जीव में अज्ञान, मोह, इन्द्रियविकलता, कृपणता, दुर्बलता, चार गतियों में परिभ्रमण, उच्च-नीचता, शरीरधारिता वगैरह अनन्त प्रकार की विचित्रता दृष्टिगोचर होती है। प्रत्येक जीव के कर्म अलग अलग होते हैं। अपने कर्म के अनुसार जीव सुख-दुःख और दूसरी विचित्रताओं का अनुभव करते हैं । जीवों के बीच ज्ञान, शरीर, बुद्धि, आयुष्य, वैभव, यश-कीर्ति वगैरह सैंकड़ों बातों की विषमता का कारण कर्म है। कर्म कोई काल्पनिक वस्तु नहीं, परन्तु यथार्थ पदार्थ है और उसका पुद्गलास्तिकाय में एक द्रव्यरूप में समावेश है। कर्म' के मुख्य आठ भेद हैं । श्री प्रशमरतिप्रकरण में कहा है : स ज्ञानदर्शनावरणवेद्य-मोहायुषां तथा नाम्नः । गोत्रान्तराययोश्चेति कर्मबन्धोऽष्टया मौलः ॥३४॥ नाम अवान्तर-भेद ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय आयुष्य नाम ॐ م م ه ه ه ه به ما गोत्र ; i अन्तराय १. आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्तरायाः । तत्त्वार्थ अ० ८, सूत्र ५ २. पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिकश्चतुः षट्कसप्तगुणभेदाः । द्विपञ्चभेद इति सप्तनवति भेदास्तथोत्तरतः ॥३५।।-प्रशमरतिप्रकरणे पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिर्द्विचत्वारिंशदद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम्। तत्त्वार्थ अ० ५, सूत्र ६
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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