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ज्ञानसार
उसके बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचनयोग को रोधे और पीछे के समय में सूक्ष्म मनोयोग की रोधे । उसके बाद के समय में काययोग को रोधे ।
सूक्ष्म काययोग के अवरोध की क्रिया करती हुई आत्मा 'सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती' नाम के शुक्ल ध्यान के तीसरे भेद पर आरुढ हो जाय और १३ वें गुणस्थानक के चरम समयपर्यंत जाय ।
सयोगी केवली गुणस्थानक के चरम समय में (१) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान (२) सर्व किट्टियाँ, (३) शाता का बंघ (४) नाम गोत्र की उदीरणा (५) शुक्ल लेश्या, (६) स्थिति-रस का घात और (७) योग । इन सातों पदार्थों का एक साथ विनाश हो जाता है और आत्मा अयोगी केवली बन जाती है।
१०. चौदह गुणस्थानक
आत्मगुणों की उत्तरोत्तर विकास-अवस्थाओं को 'गुणस्थानक' कहा जाता है। ये अवस्थाएं चौदह हैं । चौदह अवस्थाओं के अन्त में आत्मा गुणों से परिपूर्ण बनती है, अर्थात् अनंतगुणमय आत्मस्वरुप प्रगट हो जाता है।
__ *गुणविकास की इन अवस्थाओं के नाम भी उस-उस अवस्था के अनुरूप रखे गए हैं। (१) मिथ्यात्व, (२) सास्वादन, (३) मिश्र, (४) सम्यग्दर्शन, (५) देशविरति, (६) प्रमत्त श्रमण, (७) अप्रमत्त श्रमण, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्ति, (१०) सूक्ष्मलोभ, (११) शान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगी, (१४) अयोगी ।
___ अब यहाँ एक-एक गुणस्थानक के स्वरुप का संक्षेप में विचार करते हैं। १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक :
.. तात्त्विक दृष्टि से जो परमात्मा नहीं; जो गुरू नहीं; जो धर्म नहीं, उसे परमात्मागुरु और धर्म मानना वह, मिथ्यात्व कहलाता है। परन्तु यह व्यक्त मिथ्यात्व कहलाता है। मोहरूप अनादि अव्यक्त मिथ्यात्व तो जीव में हमेशा रहता है। वास्तव में मिथ्यात्व यह गुण नहीं है, फिर भी 'गुणस्थानक' व्यक्त मिथ्यात्व की बुद्धि को अनुलक्षित करके कहा गया है । 'व्यक्तमिथ्यात्वधीप्राप्तिर्गुणस्थानतयोच्यते ।"
★ 'गुणस्थानक्रमारोह' प्रकरणे श्लोक : २-३-४-५ १. व्यक्त मिथ्यात्व की प्राप्ति को गुणस्थान कहा जाता है।