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परिशिष्ट : ध्यान
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• सैंकडों भवों में उपार्जित किये हुए अनन्त कर्मों के गहन वन के लिये अग्नि समान है ।
• सर्वतप के भेदों में श्रेष्ठ है ।
• आंतर तपः क्रियारुप है ।
धर्मध्यान' के चार लक्षण हैं : (१) आज्ञारुचि, (२) निसर्गरुचि, (३) उपदेशरुचि, (४) सूत्ररुचि ।
( १ ) आज्ञारुचि : श्री जिनेश्वरदेव के वचन की अनुपमता, कल्याणकारिता, सर्व सत्तत्त्वों की प्रतिपादकता वगैरह को देखकर उस पर श्रद्धा करना । (२) निसर्गरुचि : ज्ञान- दर्शन - चारित्रमय आत्मपरिणाम ।
(३) उपदेशरुचि : जिनवचन के उपदेश को श्रवण की भावना ।
( ४ ) सूत्ररुचि: द्वादशांगी का अध्ययन एवं अध्यापन की भावना । धर्मध्यान' के चार आलम्बन हैं ।
(१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परावर्तना, (४) धर्मकथा
अर्थात् सद्गुरु के पास विनयपूर्वक सूत्र का अध्ययन करना । उसमें अगर शंका हो तो विधिपूर्वक गुरुमहाराज के पास जाकर पृच्छा करना । निःशंक बने हुए सूत्रार्थ भूल न जाये इसलिए बार बार उसका परावर्तन करना और इस प्रकार आत्मसात् हुए सूत्रार्थ का सुपात्र के सामने उपदेश देना । ऐसा करने से धर्मध्यान में स्थिरता प्राप्त होती है ।
धर्मध्यान' की चार अनुप्रेक्षा है :
(१) अनित्य भावना, (२) अशरण भावना, (३) एकत्व भावना और (४) संसार भावना |
इन चार भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करने से धर्मध्यान उज्ज्वल बनता है और आत्मसात् हो जाता है ।
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१. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारी लक्खणा- आज्ञारूई - णिसग्गरूई - उवएसरुई - सुत्तरुई । श्री औपपातिक सूत्रे ।
२. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलम्बणा-वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा धम्मकहा । ३. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ-अनित्यत्वाशरणत्वैकत्वसंसारानुप्रेक्षाः ।-श्री
औपपातिक सूत्रे ।