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ज्ञानसार
"लिपि' संज्ञाक्षर रुप होती है। भले वह लिपि हिंदी हो, संस्कृत हो, गुजराती हो अथवा अंग्रेजी हो । केवल अक्षर-दृष्टि से परम ब्रह्म का दर्शन नहीं होता है। वाङ्मयी-दृष्टि व्यंजनाक्षर स्वरूप है-अर्थात् अक्षरों का उच्चारण करने मात्र से परम ब्रह्म का दर्शन नहीं होता है। जबकि मनोमयी दृष्टि अर्थ के परिज्ञान रूप है,-मतलब, कितना ही उच्च श्रेणी का अर्थज्ञान हमें प्राप्त हो जाए, लेकिन उसके माध्यम से क्लेशरहित विशुद्ध आत्म-स्वरुप का प्रत्यक्ष में दर्शन असम्भव ही है।
यदि कोई यह कहता है : "पुस्तक-गठन से और ग्रन्थाध्ययन करने से परम ब्रह्म के दर्शन होते हैं !" तो यह निरा भ्रम है। कोई कहता है कि 'श्लोक, शब्द अथवा अक्षरों का उच्चारण करने से आत्मा का दर्शन होता है', तो यह भी यथार्थ नहीं । कोई कहता हो कि 'शास्त्रों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अर्थ को समझने से आत्मा का साक्षात्कार होता है', तो यह भी सरासर मिथ्या है। ...
आत्मा का... कर्मों से मुक्त विशुद्ध आत्मा के दर्शन हेतु आवश्यक है केवलज्ञान की दृष्टि । अनुभव की दृष्टि । जब तक अपनी दृष्टि कर्मों के रोग से प्रभावित है तब तक कम-मुक्त आत्मा के दर्शन नहीं होंगे। लाल रंग की ऐनक लगाने से सिवाय लाल ही लाल रंग के और कुछ दिखायी नहीं देगा। वैसे ही कर्मों के प्रभाव तले रही दृष्टि से सब कर्म-युक्त ही दिखायी देगा, कर्म-रहित कुछ नहीं ।
राग-युक्त और द्वेष-प्रचुर दृष्टि क्या वीतराग को देख सकेगी? वीतराग के शरीर को भले देख ले, लेकिन वीतराग की आत्मा को देख न पाएगी। अपनी वीतराग-आत्मा का साक्षात्कार करने के लिए तो दृष्टि राग-द्वेषरहित ही होनी चाहिए।
__ कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है की अपनी दृष्टि को निर्मल, विमल करो । दृष्टि निर्मल करने का अर्थ है मानसिक विचारों को विमल, विशुद्ध करना। हर पल और हर घडी राग-द्वेष के द्वंद्व में उलझे विचार आत्मचिंतन नहीं कर सकते । जंब तक वैचारिक प्रवाह राग-द्वेष की गिरि-कंदराओं से अबाध गति से प्रवाहित है तब तक कोलाहल होना स्वाभाविक है ! आंतरिक राग-द्वेष से मुक्ति