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कर्मविपाक-चिन्तन
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लिए नहीं, अपितु स्वर्गलोक की ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिए ! अरे, वह प्रव्रज्या ग्रहण कर साधु भी बन जाएगा ! लेकिन मोक्षप्राप्ति और आत्मविशुद्धि के लिए आराधना नहीं करेगा, परन्तु देवलोक के दिव्य सुख और उच्च पद पाने के लिए आराधना करेगा । शास्त्रों में उल्लेख है कि 'शुद्ध चारित्रपालन से देवगति प्राप्त होती है। ऐसा जान कर वह दीक्षित होगा । चारित्रपालन करेगा ! कठोर तपस्या और निरतिचार चारित्र का पालन करेगा ! लेकिन कर्म-बन्धनों से मुक्ति पाने की भावना पैदा ही नहीं होगी । वह उसे ऐसे भूल-भुलैये में फँसा देगा कि मुक्ति होने के विचार ही उसमें न जगे ! ...
कर्म-बन्धन की श्रृंखला से आत्मा को मुक्त करने का विचार तक अचरमावर्त काल में नहीं आता । वह धर्माचरण करता अवश्य दिखाई देता है, लेकिन आत्मशुद्धि और मुक्ति के लिए नहीं, बल्कि संसार-वृद्धि के लिए करता
चरमावर्त काल में अवश्य आत्मधर्म का ज्ञान होता है। आत्म-धर्म की आराधना और उपासना भी होती है। लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी कर्मबन्धन से मुक्ति की इच्छा रखनेवाले साधु-मुनिराज के इर्द-गिर्द 'कर्म' निरंतर चक्कर लगाते रहते हैं ! छिद्रान्वेषण करते हैं और यदि एकाध छिद्र दृष्टिगोचर हो जाए तो आनन-फानन में घुस-पैठ कर मुनि के मुक्ति-पुरुषार्थ को शिथिल बनाने पर तुल जाता है । उनके मार्ग में नाना प्रकार की रूकावटें और अवरोध पैदा करते विलम्ब नहीं करता । अतः मुनि को सदा सावधान रहना आवश्यक है। वह कोई छिद्र न रहने दे अपनी आराधना-उपासना की रक्षापंक्ति में ! तभी सफलता सम्भव है।
प्रमाद के छिद्रों में से कर्म आत्मा में प्रवेश करता है ।
मानव जीवन के निद्रा, विषय, कषाय, विकथा और मद्यपान-ये पाँच प्रधान प्रमाद हैं । अतः मुनि को अपनी निद्रा पर संयम रखना चाहिए । उन्हें रात्रि के दो प्रहर अर्थात् छह घंटे ही शयन करना चाहिए । वह भी गाढ निद्रा में नहीं । दिन में निद्रा का त्याग उनके लिए श्रेयस्कर है । पाँच इन्द्रियों के विषयों में से किसी भी विषय के प्रति कभी आसक्ति न होनी चाहिये । क्रोध, मान,