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११. निर्लेपता
जीव का निर्लेप होना जरुरी है । हृदय को निर्लिप्त - अलिप्त रखना आवश्यक है । राग और द्वेष से लिप्त हृदय की व्यथा और वेदना कहाँ तक रहेगी ? निर्लिप्त हृदय संसार में रहकर भी मुक्ति का परमानन्द उठा सकता है ।
और अलिप्तता का एकमात्र उपाय है - भावनाज्ञान प्रस्तुत अष्टक में तुम्हें भावनाज्ञान की पगदण्डी मिल जाएगी। विलम्ब न करो, किसी की प्रतीक्षा किये बिना इस पगदण्डी पर आगे बढ़ो । राग-द्वेष से हृदय को लिप्त न होने दो । इसके लिये आवश्यक उपाय और मार्ग तुम्हें इस अष्टक में से मिल जायेंगे । अतः इसका एकचित्त हो, अध्ययन-मनन और चिन्तन करो ।
संसारे निवसन् स्वार्थसज्जः कज्जलवेश्मनि ।
लिप्यते निखिलो लोकः ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ॥११॥१॥
अर्थ : कज्जलगृह समान संसार में रहता, स्वार्थ में तत्पर (जीव) समस्त लोक, कर्म से लिप्त रहता है, जबकि ज्ञान से परिपूर्ण जीव कभी भी लिप्त नहीं होता है ।
विवेचन : संसार यानी कज्जल गृह । उसकी दीवारें काजल से पुती हुई हैं; छत काजल से सनी हुई है और उसका भू-भाग भी काजल से लिप्त है । जहाँ स्पर्श करो, वहाँ काजल । पाँव भी काजल से सन जाते हैं और हाथ भी। सीना भी काजल से काला और पीठ भी काली हो जाती है । जहाँ देखो, वहाँ काजल ही काजल ! मतलब, जब तक उसमें रहोगे, तब तक काले बनकर ही रहना होगा ।
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