________________
त्याग
८७
गुरूदेव की परम कृपा और शुभाशीर्वाद से ही हममें ज्ञान - गुरूता पैदा होनेवाली है और ज्ञान - गुरुता का उदय तभी सम्भव है, जब उनसे विनीत भाव से 'ग्रहण शिक्षा' और 'आसेवन - शिक्षा ग्रहण की जाए और उसे सम्यग् भाव से आत्मपरिणत की जाये ।
पाँच महाव्रतों का सूक्ष्म रूप अवगत करना, क्षमा, आर्जव, मार्दवादि दस यतिधर्मों की व्यापकता समझना, पृथ्वीकायादि षट्काय-जीवों का स्वरूप आत्मसात् करना, यह सब ग्रहण - शिक्षा के अन्तर्गत आता है । सद्गुरु की परम कृपा से जीवात्मा को ग्रहण - शिक्षा की उपलब्धि होती है और इसी ग्रहण - शिक्षा को स्व-जीवन में कार्यान्वित करना उसे आसेवन - शिक्षा कहा गया है । आसेवन - शिक्षा की प्राप्ति सद्गुरु के बिना असम्भव है और इसकी प्राप्ति के बिना ज्ञान- गुरुता का उदय नहीं होता । ठीक उसी तरह बिना ज्ञान - गुरुता के केवलज्ञान असम्भव है और मोक्ष-प्राप्ति भी असम्भव है ।
अतः सद्गुरु के समक्ष उपस्थित हो, मन ही मन संकल्प करें
"गुरुदेव, आपकी परम कृपा से ही मुझ में गुरुता आ सकती है । अतः जब तक मुझ में गुरुता का प्रादुर्भाव न हो, तब तक मैं शास्त्रोक्त पद्धति का अवलम्ब करते हुए, सादर, श्रद्धापूर्वक आपकी उपासना में रत रहूँगा ।'
ज्ञानचारादयोऽपीष्टाः, शुद्धस्वस्वपदावधि ।
निर्विकल्पे पुनस्त्यागे, न विकल्पो न वा क्रिया ॥८ ॥ ६ ॥
अर्थ : ज्ञानाचारादि आचार भी अपने-अपने शुद्ध पद की मर्यादा तक ही इष्ट हैं । लेकिन विकल्प - विरहित त्याग की अवस्था में न तो कोई विकल्प है, ना ही कोई क्रिया ।
विवेचन : शुद्ध संकल्पपूर्वक की गयी क्रिया फलदायी सिद्ध होती है। सद्गुरू के पास 'ग्रहण' और 'आसेवन' शिक्षा प्राप्त करने की है। खास तौर से ज्ञानाचारादि आचारों का पालन करना होता है और वह भी शुद्ध संकल्पपूर्वक करना चाहिये ।