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________________ रयणतयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्वो । आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं णाणं ॥ ३६६ ॥ रत्नत्रय की आराधना करता हुआ जीव आराधक है और आराधना के विधान का फल केवलज्ञान है। सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरिसी य । सो जिणवरेहिं भणिदो जाण तुमं केवलं णाणं ॥ ३७०॥ आत्मा स्वयं सिद्ध है, किसी से उत्पन्न नहीं है। निर्मल है। समस्त लोकालोक को जानती, देखती है। जिनेन्द्र भगवान् का कथन है कि हे मुने, यह आत्मा ही केवलज्ञान है। इसे ही केवल ज्ञान समझना। रयणत्तयं पि जोदि आराहइ जो हु जिणवरमएण। सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परंण संदेहो ॥३७१॥ जिनेन्द्र भगवान् के मतानुसार जो योगी रत्नत्रय की आराधना करता है वह निःसंदेह पर-द्रव्य का परित्याग करता है और आत्मा का (स्व-द्रव्य) ध्यान करता है। जंजाणदि तंणाणं जं पिच्छदितं च सणं णेयं । तं चारित्तं भणिद परिहारो पुण्णपावाणं ॥ ३७२॥ यह समझना चाहिए कि जो जानता है वह ज्ञान, जो देखता है वह दर्शन और जो पापपुण्य दोनों से परे होता है, वह चारित्र है। एक मात्र आत्मा ही जानती, देखती और पापपुण्य से परे होती है। इसलिए वही ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय है।
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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