SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो इच्छदि णिस्सरिदुं संसारमहण्णवाउ रुंद्दाओ । कर्मिमधणाण डहणं सो झायदि अप्पयं सुद्धं ॥ ३६१ ॥ जो व्यक्ति संसार रूपी विराट महासागर से बाहर निकलना चाहता है वह कर्म के ईंधन का दहन करने वाले शुद्ध आत्मध्यान में लीन रहता है। सव्वे कसाय मोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं । लोयववहारविरदो अप्पा झाएह झाणत्थो ॥ ३६२ ॥ तमाम कषायों, गौरव, मद, राग, द्वेष तथा मोह को छोड़कर, सांसारिक व्यवहारों से विरत रहकर और ध्यान में स्थित होकर मुनिजन आत्मा का ध्यान करते हैं। मिच्छतं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण । मोणव्वएण जोदि जोयत्थो जोयए अप्पा ॥ ३६३॥ मिथ्यात्व, अज्ञान और पाप-पुण्य को मन-वचन-काय से त्यागकर, मौनव्रत धारण करके और ध्यान में अवस्थित होकर योगीजन आत्मा का ध्यान करते हैं । जं मया दिस्सदे रूवं तं ण णादि सव्वहा । जागं दिस्सदेव तम्हा जंपेमि केण हं ॥ ३६४ ॥ जोरूप मुझे दिखाई देता है (जड़ होने के कारण ) वह कुछ भी नहीं जानता। मैं ज्ञायक (जाननेवाला) हूँ। लेकिन अमूर्तिक होने के कारण मैं उसे दिखाई नहीं देता । • इसलिए दोनों के मध्य संवाद कैसे हो ? 95
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy