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________________ अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण ।। पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण॥२३६ ॥ अगर स्वभाव में दूसरों के दोष देखने की, उनकी हँसी उड़ाने की, उनसे ईर्ष्या रखने की, उनसे मायाचार करने की अतिशयता हो तो ऐसा नग्नत्व सिर्फ़ पाप से मलिन और सिर्फ अपयश का पात्र होता है। पयडहिं जिणवरलिंगं अभितरभावदोसपरिसुद्धो। भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ ॥ २४० ॥ भाव में मलिनता हो तो जीव बाह्य परिग्रहों में फँसता रहता है। इसलिए आत्मा को शुद्ध आभ्यन्तर भावों से सम्पन्न रखते हुए ही द्रव्य मुनित्व को धारण करना चाहिए। धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफूल्लसमो। णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण॥२४१॥ जो मुनि धर्म में (स्वभाव में/दस लक्षण धर्म में) रमा हुआ नहीं है वह ईख के फूल के समान फल और गन्धगुण से रहित है। वह तो खाली नग्न रूप में नाच रहा है। जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिगंथा। ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले ॥ २४२ ॥ जो मुनि राग और परिग्रह से ग्रस्त है और जिनभावना अर्थात शुद्ध आत्मभाव से रहित है वह तो सिर्फ़ द्रव्य मुनि है। उसे जिनशासन की समाधि (ध्यान) और बोधि (सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र-रूप मोक्षमार्ग) की प्राप्ति नहीं होती। 66
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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