SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावहि पंचपयारं णाणं अण्णाणणासणं सिग्धं । भावणभावियसहिओ दिवसिवसुहभायणो होदि ॥२३५॥ हे जीव, अज्ञान का नाश करने वाले पाँच प्रकार के ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल ज्ञान) का भावन शीघ्र और भावना के साथ करो ताकि तुम स्वर्ग, मोक्ष और सुख के भाजन बन सको। पढिएण वि किं कीरइ किंवा सुणिएण भावरहिएण। भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं ॥२३६॥ भाव रहित पढ़ने, सुनने से कुछ भी हासिल नहीं होता। एक मात्र भाव ही श्रावकत्व और मुनित्व का आधार है। दव्वेण सयल णग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता ॥ २३७ ॥ बाह्य रूप में तो सभी प्राणी नग्न होते हैं। नारकी तथा तिर्यंच जीव और यथा अवसर अन्य जीव जैसे मनुष्य, भी नग्न होते हैं। लेकिन भाव से अशुद्ध होने के कारण इन्हें भावमुनित्व की प्राप्ति नहीं होती। णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमई । ..... णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवजिओ सुइरं ॥ २३८॥ जीव यदि सम्यग्दर्शन ( जिन भावना) से रहित है तो उसे नग्न रहने से कोई फल नहीं मिलेगा। उसे दुःख ही मिलेगा। वह संसार सागर में ही भ्रमण करता रहेगा। उसे बोधि (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप स्वानुभव) की प्राप्ति नहीं होगी। 65.
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy