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________________ उद्धद्धमज्झलोये केई मझंण अहयमेगागी। इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं ॥४१६॥ ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक में कोई भी मेरा नहीं है, मैं एकाकी आत्मा हूँ-इस भावना से योगी मुनि स्पष्टतः शाश्वत सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त करते हैं। देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंतिता। झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मि॥४१७॥ देव और गुरु के भक्त, वैराग्यक्रम के चिन्तन में तल्लीन, ध्यान में रत और श्रेष्ठ चारित्र के धनी मुनिजन मोक्षमार्ग में स्वीकार्य होते हैं। णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदिह सुचरित्तो जोई सो लहदि णिव्वाणं ॥४१८॥ निश्चय नय का यह सोच है कि आत्मा को आत्मा में ही आत्मा के लिए ही भली प्रकार तल्लीन रखने वाला योगी स्पष्टतः सम्यक् चारित्र का धनी होता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है। पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो। जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिबंदो ॥४१९ ॥ आत्मा पुरुषाकार और योगी है। श्रेष्ठ ज्ञान, दर्शन से परिपूर्ण है। ऐसी आत्मा का जो योगी मुनि ध्यान करता है उसके पाप दूर हो जाते हैं ( उसके पूर्व कर्मबन्ध का नाश हो जाता है) और वह राग द्वेष आदि विकल्पों से रहित हो जाता है यानी उसका नया कर्मबन्ध होने की सम्भावना भी नहीं रहती। 108
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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