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________________ णिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसुय । सत्तूणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो ॥ ४०७॥ निन्दा-प्रशंसा, दुःख-सुख और शत्रु-मित्र में समभाव रखना चारित्र है। चरियावरिया वदसमिदिवज्जिया सुद्धभावपन्भट्ठा। केई जंपति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ॥४०८॥ कई मनुष्य व्रत और समिति से रहित हैं। उनकी आचार क्रिया भी आवृत है। इसलिए वे शुद्ध भाव से च्युत हैं। लेकिन कहते वे ऐसा हैं कि यह काल (पंचम काल) वस्तुतः ध्यान करने के योग्य नहीं है। सम्मत्तणाणरहिओ अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुक्को । ससारसुहे सुरदो ण हु कालो भणदि झाणस्स ॥४०६॥ सम्यक्त्व और ज्ञान से रहित उक्त अभव्य जीव को निस्सन्देह मोक्ष मिलने वाला नहीं है। वह तो संसार के सुखों में आसक्त है और कहता यह फिरता है कि यह काल ही ध्यान के योग्य नहीं है। पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणदि झाणस्स ॥४१०॥ जो पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों में मूढ़ एवं अज्ञानी है वही यह कहता है कि यह काल ही ध्यान करने योग्य नहीं है। भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेदि साहुस्स । तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो विअण्णाणी ॥४११॥ इस भरत क्षेत्र में पंचम काल में भी आत्म स्वभाव में स्थित मुनियों को धर्मध्यान होता है। लेकिन अज्ञानी जन इसे भी नहीं मानते। 106
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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