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________________ अच्चेयणं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेदि अण्णाणी। सो पुण णाणी भणिदो जो मण्णइ चेयणे चेदा ॥३६३॥ जो अचेतन में चेतन को मानता है वह अज्ञानी है और जो चेतन में ही चेतन को मानता है वह ज्ञानी है। तवरहियं जंणाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहदि णिव्वाणं ॥३६४ ।। तपरहित ज्ञान और ज्ञान रहित तप दोनों ही अकार्य हैं। ज्ञान और तप के संयुक्त होने पर ही निर्वाण प्राप्त होता है। धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेदि तवयरंण। णादूण धुवं कुजा तवयरणं णाणजुत्तो वि ॥३६५।। तीर्थंकरों को मोक्ष मिलना अटल है। वे मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय इन चार ज्ञानों के धनी हैं। फिर भी वे तप करते हैं। ऐसा पक्के तौर पर जानकर और ज्ञानयुक्त होकर तप करना चाहिए। बाहिरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहियपरियम्मो। सो सगचरित्तभट्ठो मोक्खपहविणासगो साहू ॥३६६॥ जो साधु बाह्य मुनिवेश से युक्त है लेकिन आभ्यन्तर मुनित्व अर्थात् राग द्वेष रहित आत्मानुभव से वंचित है वह आत्म स्वरूप के चारित्र से भ्रष्ट और मोक्षपथ का विनाशक है। 103
SR No.022293
Book TitleAtthpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granthratna Karyalay
Publication Year2008
Total Pages146
LanguagePrakrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size9 MB
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