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सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू ।
सो तेण दु अण्णाणी गाणी एतो दु विवरीओ || ३८६ ॥
संयोग से मुनि को पर - द्रव्य के प्रति राग होता है तो स्वाभाविक है कि अनिष्ट के संयोग से उसके प्रति उसे द्वेष भी होगा। इस प्रकार रागद्वेष के कारण वह अज्ञानी है। इसके विपरीत ज्ञानी में इष्ट पर- द्रव्य के प्रति राग और अनिष्ट पर- द्रव्य प्रति द्वेष नहीं होता ।
आसवदेहू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि ।
सो तेण दु अण्णाणी आदसहावा दु विवरीदु ॥ ३६० ॥
राग का भाव अगर मोक्ष के निमित्त भी हो तो भी वह आस्रव का, कर्मबन्ध का कारण है। इसलिए जो मुनि मोक्ष के प्रति भी रागभाव रखता है वह आत्मस्वभाव से विपरीत होने के कारण अज्ञानी है।
जो कम्मजाइमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरो ।
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो || ३६१॥
कर्मरत इन्द्रियों से मिला ज्ञान ही जिसके लिए ज्ञान है वह स्वभाव ज्ञान अर्थात् केवल ज्ञान को खण्ड-खण्ड करने का दोषी है । खण्ड ज्ञान को पूर्ण ज्ञान समझने के कारण वह अज्ञानी है। वह जिनमत को दूषित कर रहा है।
णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं ।
अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ॥३६२॥
अगर ज्ञान चारित्र रहित और तप दर्शन रहित है तथा और भी सारा क्रियाव्यापार शुद्धभाव से रहित है तो ऐसा मुनिवेश धारण करने में क्या सुख है ?
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