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________________ [१८८] परमार्थदृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह जीव विन्मात्र मूर्ति वा चैतन्यस्वभाव रूप है. अपने निज स्वभाव का कर्ता है, और अपने आत्मजन्य सुखका भोक्ता है । यदि व्यवहार दृष्टिसे देखा जाय तो संसारी समस्त जीव शुभा शुभ कर्मोंके कर्ता हैं और उनके फलोंके भोक्ता हैं । पुद्गल कोंके संयोगसे ये संसारी जीव अनेक महा दुःखमय इस संसार में निमग्न हो रहे हैं । यही समझकर भव्य जीवोंको अपना शुद्ध आत्म-स्वरूप-स्वराज्य प्रप्त करनेके लिये अपने हृदयमें अपने शुद्ध आत्माका स्वरूप चिन्तन करना चाहियं ॥३९९ ॥ ४०० ॥ धर्मोऽप्यधर्मो गमनं च कालोऽ-, जीवोऽप्यमूर्ती रहितः क्रियाभिः । गतिस्थितिस्थानविवर्तनादि, स्तेषां स्वभावो भवति स्वभावात् ॥४०१ प्रोक्तः सुमूर्तः खलु पुद्गलश्च, स्पर्शादियुक्तः सहितः क्रियाभिः । ज्ञात्वेति भव्यैर्हदि भावनीय, मजीवतत्त्वं हि निजात्मबाह्यम् ॥४०२॥ अब अजीव तत्वको कहते हैं। धर्म अधर्म आकाश और काल ये चारों अजीव द्रव्य अमूर्त हैं और क्रिया
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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