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________________ अपने शुद्ध आत्मा की उपलब्धि संसारके समस्त क्लेशोंको नाश करने वाली है उसको पाकर अपने प्राण जानेपर भी संसारके जन्म मरणको बढाने वाला प्रमाद कभी नहीं करना चाहिए । इस संसार में इस जीवने अपने आत्मस्वरूपसे रहित और संसारको बढाने वाले कार्य अनेक वार किये हैं । यही समझकर अब मोक्ष देनेवाले और सर्वथा शांति उत्पन्न करने वाले कार्य इस जीवको सदा करते रहना चाहिये। इसको बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं ॥ ९४-९५ ॥ प्रमादः प्राप्य कार्यों न धर्म स्वर्मोक्षदायकम् । धर्मप्रसादाज्जीवेन लभ्यते वाञ्छितं फलम् ॥ खानन्दस्वादतः शीघ्रं स्वराज्यं लभतेऽचलम् । ज्ञात्वेत्यहत्प्रभोधर्मः कार्यः स्वमोक्षहेतवे ।३९७ स्वर्गमोक्ष देनेवाले इस जैनधर्मको पाकर कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये । क्योंकि यह जीव इस धर्म के प्रसादसे ही इच्छानुसार फलको प्राप्त होता है। अपने आत्मजन्य आनन्दामृत-रसका स्वाद लेनेसे इस जीवको शीघ्र ही मोक्ष रूप अचल स्वराज्य की प्राप्ति हो जाती है । यही समझ कर भव्यजीवों को स्वर्गमोक्ष प्राश करने के लिए भगवान अरहंत देवका कहा हुआ जिनधर्म अवश्य धारण करना चाहिये इसको धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं ॥९६.९७॥
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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