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________________ १८५] भिन्न कर नष्ट कर देना चाहिये । इसको निर्जरानुप्रेक्षा कहते हैं ॥ ३९० ॥ ३९१ ॥ लोके पापवशाज्जीवा दुःखं श्वभ्रगतौ परम् । तिर्यग्गतौ च संजातं देवे नरभवे तथा ॥३९॥ भुंजते दीनभावेन ज्ञात्वा त्यक्त्वा शुभं क्रमात । जिनधर्मे स्थितिः कार्या शुद्धात्मन्येव मोक्षदे ॥ ___ इस लोकमें भरे हुए समस्त संसारी जीव पापकर्मके उदयसे दीनता धारण कर नरकादिकोंमें परम दुख भोगते हैं, तिर्यंचगनिमें महादुःख भोगते हैं तथा देव और मनुष्य गतिमें महादुःख भोगते हैं । यही समझकर भव्य जीवोंको अनुक्रमसे समस्त पापोंका त्याग कर देना चाहिये और जिनधर्ममें अपने आत्माको स्थिर कर देना चाहिये, अथवा मोक्ष प्राप्त करानेवाले अपने शुद्ध आत्मामें अपने आत्माको स्थिर कर देना चाहिये । इसको लोकानुप्रेक्षा कहते हैं ॥ ३९२ ॥ ३९३ ॥ प्राप्य स्वात्मोपलब्धि च भवक्लेशादिनाशिनम् । गतप्राणोऽपि कार्यो न प्रमादो भववर्द्धकः ॥३९४ स्वात्मबाह्यं कृतं कार्य बहुवारं भवप्रदम् । ज्ञात्वेति मोक्षदं कार्य कर्तव्यं शांतिदायकम् ॥
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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