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________________ [६९] तत्त्वप्रलोपी चतुरोऽपि शास्त्री, मिथ्याप्रलापी निपुणोऽपि वाग्मी ॥१२४॥ न्यायी तथा को जिनधर्मलोपी, विश्वासहीनः सुजनोऽपि पापी । एते मनुष्या निजधर्मबाह्या-, श्चाण्डालतुल्या भुवि निंदकाश्च ॥१२५॥ उत्तरः-जो श्रेष्ट बुद्धिमान् होकर भी विद्वानों से द्रोह वा ईर्षा करें तो वह भी चांडालके समान है, जो मुनि होकर भी क्रोध करे तो वह चांडालके समान है, जो धनवान होकर भी लोभ करे वह भी चांडाल के समान है, जो मनुष्य होकर भी अभिमान करे वह भी चांडालके समान है, जो चतुर शास्त्री होकर भी तत्त्वोंका लोप करे वह भी चांडालके समान है, जो चतुर वक्ता होकर भी मिथ्याभाषण करता हो वह भी चांडालके समान है, जो पुरुष न्यायवान् होकर भी जिनधर्मका लोप करता हो 'वह भी इस पृथ्वीपर चांडालके समान है, तथा जो श्रेष्ठ मनुष्य होकर भी विश्वासघात करे अथवा पापी बन जाय तो वह भी चांडालके समान समझा जाता है । ये ऊपर लिखे हुए मनुष्य अपने धर्मसे रहित हैं और इसी लिये संसारमें निंदक और चांडालके समान समझे जाते हैं ॥ १२४ ॥ १२५॥
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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