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________________ अथ ध्यानस्वरूपनिरूपणं नामाख्यं एकादशोल्लास: : 269 विद्या में, मन्त्र, गुरु एवं देव की स्तुति में और अन्य किसी भी पवित्र वस्तु की स्तुति में लीन होना 'पदस्थ' ध्यान कहलाता है। वर्णक्रमे मन्त्राक्षरध्यानफलोच्यते स्तम्भे सुवर्णवर्णानि वश्ये रक्तानि तानि च । क्षोभे विद्रुमवर्णानि कृष्णवर्णानि मारणे ॥ 40 ॥ द्वेषणे धूम्रवर्णानि शीशवर्णानि शान्तिके । आकर्षेऽरुणवर्णानि स्मरेन्मन्त्राक्षराणि तु ॥ 41 ॥ यदि साधक को स्तम्भन करना हो तो स्वर्ण जैसे पीत वर्ण; वशीकरण करना हो तो लाल; किसी को क्षोभ दिलाना हो तो विद्रुम; मारण का प्रयोजन काले, विद्वेषण करना हो तो धूम्र, शान्ति का प्रयोजन हो तो चन्द्र सम श्वेत- दूधिया और आकर्षण क्रिया करनी हो तो लाल मन्त्राक्षर को चिन्तवन करना चाहिए। यत्किञ्चन शरीरस्थं ध्यायते देवतादिकम् । " मन्मयीभावशुद्धं तत् पिण्डस्थं ध्यानमुच्यते ॥ 42 ॥ पूरी तरह तम्मय भाव से शुद्ध ऐसा ध्यान जो शरीर में देवता आदि पर केन्द्रित हो, ‘पिण्डस्थ' ध्यान कहलाता है। आपूर्य वाममार्गेण शरीरं प्राणवायुना । तेनैव रेचयित्वा च नयेद्ब्रह्मपदं मनः ॥ 43 ॥ बायीं ओर से यदि प्राणवायु को खींचा हो तो पुनः उसी ओर से वायु का रेचन, निष्कास करे और इस विधि से प्रशान्त मन को ब्रह्मपद पर ले जाने का अभ्यास करना चाहिए । अभ्यासाद्रेचकादीनां विनापीह स्वयं मरुत् । स्थिरीभवेन्मनः स्थैर्याद्युक्तिर्नोक्ता ततः पृथक् ॥ 44 ॥ यदि मन की स्थिरता हो तो रेचकादि के अभ्यास के बिना ही वायु स्वयं स्थिर होता है । अतएव वायु स्थिर करने की युक्तिं पृथक् से नहीं कही गई।" चञ्चल हि मनः * - ✓ नाट्यशास्त्र में रसों के लिए रङ्गों के प्रयोग का निर्देश आया है। श्याम रङ्ग शृङ्गाररस के लिए, श्वेतहास्य, कपोत- करुण, रक्त-रौद्र, गौर-वीर, कृष्ण भयानक, नील- वीभत्स और पीत रङ्ग अद्भुत रस के लिए उपयोगी कहा गया है। (भारतीय लोकमाध्यम पृष्ठ 67 ) ** हठयोग में सामान्यतया आठ कुम्भक प्राणायाम बताए गए हैं- सूर्यभेदन, उज्जयि, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूर्च्छा और प्लावनी। लिङ्गपुराण में आया है कि प्राणायाम में पूरकरेचक सहित सगर्भ, अगर्भ अर्थात् केवल सजप, विजप, इभ अथवा गज, शरभ, दुराधर्ष, केसरी, गृहीत और दम्यमान अपनी स्थिति के अनुसार होता है। उसी प्रकार से वायु अस्वस्थ होता है, तो योगियों को भी यह दुराधर्ष हो जाता है। न्याय के अनुसार जब यह सेव्यमान किया जाता है, तब वह स्वस्यता को प्राप्त है । जैसे दुर्मद मृगराज, नाग अथवा शरभ को रीतिपूर्वक ही अपने वश में किया
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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