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________________ 268 : विवेकविलास वैभव और शरीर 'बहिरात्मा' कहलाती है और शरीर का अधिष्ठायक जीव 'अन्तरात्मा' है । यह जीव ही कर्म से बन्धा हुआ है। परमात्मपरिभाषाह ―― निरातङ्को निराकाङ्क्षो निर्विकल्पो निरञ्जनः । परमात्माक्षयोऽत्यक्षो ज्ञेयोऽनन्तगुणोऽव्ययः ॥ 33 ॥ भय, आकांक्षा, विकल्प और कर्म का आलेपन - जिसकी ये चार चीजें चली गईं; जिसके अनन्त गुण हो तथा जिसका क्षय नहीं हो, वह 'परमात्मा' कहलाता है। यथा लोहं सुवर्णत्वं प्राप्नोत्यौषधयोगतः । आत्मध्यानात्तथैवात्मा परमात्मत्वमश्रुते ॥ 34 ॥ जिस प्रकार (प्राचीन काल में धातुवाद की मान्यता रही है) औषधीय योग से लोहे का सोना हो जाता है, वैसे ही परमात्मा के ध्यान से जीवात्मा स्वयं परमात्मा हो जाता है । अध्यात्मवर्जितैर्ध्यानैः शास्त्रस्थैः फलमस्ति न । भवेन्नहि फलैस्तृप्तिः पानीयप्रतिबिम्बितैः ॥ 35 ॥ आत्म विचार के अभाव में केवल शास्त्र में वर्णित ध्यान से कुछ भी फल नहीं मिलता है, जिस प्रकार कि जल में प्रतिबिम्बित पेड़ के फल कभी तृप्ति नहीं देते। चतुर्विधध्यानमाह - रूपस्थं च पदस्थं च पिण्डस्थं रूपवर्जितम् । ध्यानं चतुर्विधं प्रोक्तं संसारार्णवतारकम् ॥ 36 ॥ ध्यान चार प्रकार का कहा गया है- 1. रूपस्थ, 2. पदस्थ, 3. पिण्डस्थ और 4. रूपातीत। इन चार प्रकार का ध्यान संसार-समुद्र से पार उतारने वाला कहा है। पश्यति प्रथमं रूपं स्तौति ध्येयं ततः पदैः । तन्मयः स्यात्ततः पिण्डे रूपातीतः क्रमाद्भवेत् ॥ 38 ॥ साधक पहले ध्येय वस्तु का स्वरूप देखता है, फिर पद से उसकी स्तवना करता है, तदोपरान्त पिण्ड में तन्मय होता है और फिर क्रमशः रूपातीत होता है। यथावस्थितमालम्ब्य रूपं त्रिजगदीशितुः । क्रियते यन्मुदा ध्यानं तद्रूपस्थं निगद्यते ॥ 38 ॥ त्रिलोकेश्वर (तीर्थङ्करदेव ) का जैसा रूप है, उसी का आलम्बन लेकर हर्षपूर्वक ध्यानस्थ होना ‘रूपस्थ' कहलाता है। विद्यायां यदि वा मन्त्रे गुरुदेवस्तुसावपि । पदस्थं कथ्यते ध्यानं पवित्रान्यस्तुतावपि ॥ 39 ॥
SR No.022242
Book TitleVivek Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna
PublisherAaryavart Sanskruti Samsthan
Publication Year2014
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size22 MB
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