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252 : विवेकविलास
कृष्ण, कपोत और नील- इन तीन लेश्याओं से, अनुचित अध्यवसाय और आर्त्त-रौद्र ध्यान से दुःखोत्पादक पापकर्म बाँधा जाता है।
क्रोधो विजितदावाग्निः स्वस्यान्यस्य च घातकः। - दुर्गतेः कारणं क्रोधस्तस्माद्वर्यो विवेकिभिः॥6॥
क्रोध दावानल से बढ़कर है क्योंकि वह अपना और दूसरे का विनाश करता है तथा दुर्गति का कारण भी है। अतएव विवेकवानों को क्रोध का त्याग करना चाहिए।
कुलजातितपोरूप बललाभ तश्रियाम्। मदात्प्राप्नोति तान्येव प्राणी हीनानि मूढधीः॥7॥
वह मूढ़ मनुष्य है जो 1. कुल, 2. जाति, 3. तपस्या, 4. रूप, 5. बल, 6. लाभ, 7. शास्त्र और 8. वैभव का मद करता है। इस मद के कारण ये ही आठों वस्तुएँ अगले जन्म में वह बहुत हीन रूप में पाता है।
दौर्भाग्यजननी माया माया दुर्गतिवर्तनी। नृणां स्त्रीत्वप्रदा माया ज्ञानिभिस्त्यज्यते ततः॥8॥
माया (कपटजाल) दुर्भाग्य को उत्पन्न करने वाली, दुर्गति में पहुँचाने वाली और पुरुष को स्त्री का जन्म देने वाली है। अतएव ज्ञानी पुरुष माया का त्याग करते
कज्जलेन सितं वासो दुग्धं सूक्तेन यादृशम्। क्रियते गुणसङ्घातः पुसां लोभेन तादृशः॥9॥
जिस प्रकार श्वेत वस्त्र काजल में डालने से मलीन होते हैं और जैसे दूध फटने से बिगड़ जाता है, वैसे ही पुरुष के सब गुण लोभ के कारण मलीन और विकृत हो जाते हैं।
भवे कारागृहनिभे कषाया यामिका इव। जीवः किं तेषु जाग्रत्सु मोक्षमाप्रोति बालिशः॥10॥
यह जगत् कारागार जैसा है और क्रोधादि चार कषाय यम तुल्य हैं। इसलिए जहाँ तक कषाय यम जाग्रत रहते हों, वहाँ तक जीव संसार रूपी कारागार से कैसे छूट सकता है?
शौर्यं गाम्भीर्यमौदार्य ध्यानमध्ययनं तपः। सकलं सफलं पुसां यदि चेन्द्रियनिग्रहः॥11॥
जिस व्यक्ति ने अपनी इन्द्रियों का निग्रह कर लिया हो उसका शौर्य, गम्भीरता, उदारता, शुभध्यान, अध्ययन और तपस्या- ये सारी ही बातें सफल कही जाती हैं।