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बहुत से ग्रन्थों की रचना से क्या लाभ है ? पण्डित लोगों को तो शरीरस्थ दिव्य ज्योतिः रूप बृहद् जीवतत्त्व का विचार करना चाहिए- किं रोमन्थनिभैः कार्यं बहुभिर्ग्रन्थगुम्फनैः । विद्वद्भिस्तत्त्वमालोक्य मन्तर्ज्योतिमयं महत् ॥ ( 11, 3)
इस प्रकार मुनिजी के निर्देश बहुत महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने इस ग्रन्थ को बहुपयोगी बनाया और धनपाल को उपदेश के रूप में जिन मतों को दिया, वे आज भी प्रासङ्गिक बने हुए हैं। सन्तों का सोच - मन्तव्य सदा काल के पार होता है। वह स्वयं कहते हैं कि कलावान मनुष्यों को इस जीवन में कोई ऐसी कला-वस्तु अवश्य हासिल करनी चाहिए कि जिससे निधनोपरान्त पवित्र जन्म निश्चयपूर्वक प्राप्त हो सके- अर्जनीयं कलावद्भिस्तत्किञ्चिज्जन्मनामुना । ध्रुवमासाद्यते येन शुद्धं जन्मान्तरं पुनः ॥ निधनोपरान्त यशः काया के निमित्त भी इस प्रकार का विचार सदैव होना चाहिए, जैसा कि महाराज भर्तृहरि ने भी कहा है- जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धा कवीश्वराः । नास्ति येषां यशः काये जरा मरणजं भयम् ॥
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