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अथ दीपशयनवरवधूलक्षणजातकादीनां वर्णनं नाम पञ्चमोल्लासः : 141 ऐसी मान्यता रही है कि स्त्री जब तक पुष्पवती होती रहे, वह भोग्या है और पुष्पवती होने की अवधि से लेकर 55 वर्ष की आयु तक सन्तानार्थ उसे भोगना चाहिए।
बलक्षयो भवेदूर्ध्वं वर्षेभ्यः पञ्चसप्ततेः। स्त्रीपुंसयोन युक्तं तन्मैथुनं तदनन्तरम्॥ 198॥
पुरुष को पचहत्तर वर्ष की आयु तक सहवास करना चाहिए, यह मर्यादा है। यदि स्त्री-पुरुष इसका उलङ्गन करते हैं तो उसका बल क्षीण हो जाता है। इसलिए स्त्री के लिए भोगकाल पचपन व पुरुष के लिए पचहत्तर वर्ष कहा गया है, इसके बाद नहीं।
स्त्रियां षोडशवर्षायां पञ्चविंशतिहायनः। बुद्धिमानुद्यमं कुर्याद्विशिष्टसुतकाम्यया॥199॥
पच्चीस वर्ष की आयु वाले सुज्ञ पुरुष को सोलह वर्ष की कन्या के साथ विशिष्ट पुत्र के अर्थ से सहवास करना चाहिए (ऐसी तत्कालीन परम्परा रही होगी किन्तु वर्तमान में अठारह वर्ष निर्धारित है)।
तदा हि प्राप्तवीयौ तौ सुतं जनयतः परम्। आयुर्बलसमायुक्तं सर्वेन्द्रियसमन्वितम्॥ 200॥
ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस आयु वर्ग में स्त्री-पति दोनों ही बली होते हैं, अतः वे आयुष्य, बल और समस्त इन्द्रियों से युक्त पुत्र को उत्पन्न करते हैं। सन्तानार्थे आयुविचारं -
न्यूनषोडशवर्षायां न्यूनाब्दपञ्चविंशतिः। पुमान्यं जनयेद्गर्भ स प्रायेण विपद्यते॥ 201॥
यह मत है कि पच्चीस वर्ष से कम आयु का पुरुष सोलह वर्ष से कम आयु की स्त्री के साथ सहवास करे तो वह गर्भ प्रायः गर्भाशय में ही नष्ट हो जाता है।
अल्पायुर्बलहीनो वा दारिद्र्योपद्रुतोऽथवा। कुष्ठादिरोगी यदि वा भवेद्वा विकलेन्द्रियः॥ 102॥
अथवा होने वाली सन्तति अल्पायु वाली, निर्बल, दरिद्री, कुष्टादि रोगों वाली और विकल-अङ्गवाली होती है। मनस्थित्यानुसारेणजायते सन्ततिं
प्रसन्नचित्त एकान्ते भजेन्नारी नरो यतः। यादृङ्मनाः पिताधाने पुत्रस्तत्सदृशो भवेत्॥203॥
पुरुष को प्रसन्न चित्त से एकान्त में ही स्त्री सेवन करना चाहिए क्योंकि जिस समय पिता का जैसा मन होता है, वैसी ही सन्तति होती है।