SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिदान्तसार.. ( ४२७ ) तिरिया मणुयाय दिवग्गा, जवसग्गा तिविदादियासिया; लोमादीयं-नहरिसं, सुन्नागारगते महामुणी ॥१५॥ नोअनिकंषेद्य जीवियं, नाविय पूयणं पढएसिया; अबब मुर्विति नेरवा, सुन्नागार वस्स निस्कूणो ॥ १६ ॥ अर्थः-ए। एकाकी (जव्यथी एकल विहारी, नावथी राग शेष रहित थका) च० विचरे, ठाण स्थानके काउसग्ग एकलो करे, मा श्रासने पण राग द्वेष रहित थका बेशे, स सुवे तोपण एकाकीपणे रहे एटले ते क्रिया समाधि करे ते एकलोथको होय, नि साधु शुरू श्राहारनो लेणहार उ० उपध्यान तपने विषे वि० बल वीर्यनो फोरवणहार व० विमासोने बोलणहार श्र० मन संजम स्थीर करतो होय सं० संवर सहित साधु. णो कोइ सयणादिक कारणे सुंना घरमा रह्यो साधु घर छार ढांके नही, पं० तेम धार नघामे पण नही स० जिनकल्पी साधु. पु कोइए धर्म पुब्यां थकां उ० सावध वचन न बोले, जिनकल्पी निर्वद्य पण न बोले, ण ज्यां रहे त्यां कचरादिक प्रमानें नही, जो तृणादिक पाथरे पण नही. ए श्राचार जिन-कल्पीनो बे. जा चारित्रीयो ज्यां सूर्य थाथमे त्यांज रहे. अ० परिसह उपन्ये आकुल चित्र रहित स० सज्यादिक अनुकुल प्रतिकुलादिक मु० मुनीश्वर संसार स्वरुपना जाण समताए खमे च पंखी आदिना दंस मसादिक. १० वली मे0 सिंहादिक बीहामणा जीवना कीधा अ० अथवा त० (त्यां) सुने घेरे स० सर्प विंटीना दीधा उपसर्ग सहे. ति तिर्यंचना मण मनुष्य संबंधीनाथने दि० देवतादिकना ना नपसर्ग (परिसह) सहे. तिण ए त्रण प्रकारे क्रोधना अनावे कमाए करी अहियाशे. लोग परिसह देखीने उकांटो न चमे, नयकारी पण न थाय. सु साधु सुना घरने विषे रेहेतो उपलकणथी पर्वतादिकने विषे स्थित थको म जे एम न करे ते जिन-कल्पादिक महामुनी. नो नही ते चारीत्रीयो जे उपसर्गे पीमयो थको अवंडे जिवोत्व अने मर्ण. परिसह सहे, ना न थाय पू०
SR No.022232
Book TitleSiddhant Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGambhirmal Hemraj Mehta
PublisherGambhirmal Hemraj Mehta
Publication Year1908
Total Pages534
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy