SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७१ ) 'मैं पहले अपनी साधना में मस्त था। कोई चिन्ता नहीं। कोई दुःख नहीं। परन्तु युगवीर की दीक्षा के बाद मेरी साधना में व्यवधान खड़े होने लग गये। वया शिक्षा की परिणति स्वच्छन्दता है ? आज का शिक्षित इतना असंतुलित क्यों ? कहीं भी इनका मन टिकता नहीं है। युगवीर बड़े उत्साह से दीक्षित हुआ! पर इसे अब क्या हो गया है ? कैसे समझाऊँ इसे ?' ____ आखिर में रणधीर मुनि ने मौन तोड़ा-“युगवीर मुनिजी ! आपने यह क्या किया ? गुरुदेव की शिक्षा हमारे हित के लिये है। तुमने आज यह अनर्थ क्यों किया? तुमने गुरुदेव की-संघ की आशातना की है।" ___“अब आप कटे पर नमक मत छाँटिये । गुरुदेव को गुरुपद का नशा है। वे संघ में किसी व्यक्ति का वर्चस्व सहन नहीं कर सकते । यहाँ वर्जन ही वर्जना है। मेरी बुद्धि कुण्ठित हो गयी यहाँ ।..." "छीः ! छीः ! ऐसा कहीं बोला जाता है...." "मैं ऐसी परतंत्रता में नहीं रह सकूँगा..." पिता-पुत्र में लम्बे समय तक वार्तालाप होता रहा । रणधीर मुनि की एक भी बात उन्होंने मानी नहीं उन्होंने पक्का निर्णय कर लिया कि 'मुझे संघ में नहीं रहना है।' रणधीर मनि ने गरुदेव के सन्मख सारी बात रख दी और "गुरुदेव ! मैंने इसकी दीक्षा का आग्रह किया और आपकी शान्ति में बाधक बना। इसके लिये क्षमा चाहता हूँ।" ___"मुनिजी ! इसमें आपका कुछ भी दोष नहीं है । मेरे मन में आशंका तो थी। किन्तु मैंने एक प्रयोग किया था। दीक्षा तो उन्हें मैंने ही दी है। मुनिजी ! हमारा काम साधक को सहयोग देने का है। परन्तु कर्म की दशा विचित्र है। मैं यह जानता हूँ कि युगवीरमुनि अभी अपने निर्णय के अनुसार ही करेंगे। उन्हें समझाने में कोई सार नहीं है।"
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy