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________________ ( ७० ) से ही साधक बनता है। गुरु-छन्दानुवृत्तिता ही उसकी साधना में ओज भरती है-तेज भरती है, स्वच्छन्दता नहीं। स्वच्छन्दता के निरोध से मोक्ष प्राप्त होता है, देवानुप्रिय !" गुरुदेव की अमृत जैसी तारक वाणी उन्हें विष जैसी कटु लग रही थी। युगवीर मुनि उद्दण्डता से बोले -"आत्म-गौरव खोकर मैं मोक्ष भी नहीं चाहता, गुरुदेव ! तो संघ में रहने की बात ही क्या है ?" "वत्स ! साधक को सहयोग देने के लिये यह संघ है। जो साधक हो, उन्हें हम सहयोग दे सकते हैं। साधक के लिये ही इस सघ में स्थान हैं। इस संघ की अपनी रीति-नीति है-मर्यादा है। उसके पालन में ही तुम्हारा और संघ का हित है।" गुदेव की वाणी शान्त-गभीर थी। उत्तेजना अंशमात्र भी नहीं थी। ___“यहाँ संघ में साधना जैसा है ही क्या ? “यह कहते हुए युगवीर मुनि वहाँ से उठ गये । रणधीर मुनि ने उनकी सब बातें सूनी थीं। वे यगवीर मनि के पास पहुँचे। उनका चित्त उत्तप्त हो रहा था। वे दोनों घुटने के बीच दोनों हाथों से अपने मस्तक को दबाकर बैठ थे। उनका मन बड़ा अशान्त था। उनके अभिमान पर कड़ा प्रहार हुआ था। वह अपनी कुण्डली छोड़कर फुफकार रहा था। वे सोच रहे थे—'गुरुदेव ने मुझे संघ से निकल जाने की सूचना दे दी है। इसके आगे का कदम मुझे संघ से बाहर करने का हो सकता है। पर मुझे संघ में रहना ही नहीं है। लम्बी धरती पड़ी है। कहीं भी साधना की जा सकती है।" तभी रणधीर मुनि आये। उन्होंने उनके सिर को सहलाना प्रारम्भ किया। युगवीर मुनि एकदम चौंक गये। उन्होंने सिर उठाकर देखा कि पिता मुनिजी समीप खड़े हैं और उनका सिर सहला रहे हैं । इससे उन्हें कुछ शान्ति का अनुभव हुआ। कुछ क्षण यों ही बीत गये। नीरव मौन छाया था। दोनों अपनेअपने विचारों में खोये थे रणधीर मुनि का चिन्तन चल रहा था
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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