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________________ ( ५८ ) कुंकुम-चरण धरने चाहिये ।" युगवीर को भाई की बात सुनकर घबराहट होने लगी । उसका मुख एकदम स्याह हो गया। वह कुछ हकलाता हुआ-सा बोला-"आपका आशय...आशय विवाह का है...पर-परन्तु अभी नहीं।" गुणधीर उसकी बात पर जोर से हँस पड़ा । फिर वह बोला-“विवाह कोई अजूबा थोड़े ही है, मेरे भाई ? क्यों घबरा रहे हो इतने ? अच्छा, कुछ दिन बाद ही सही। एकदो महिने विदेश की सैर कर आओ । देशाटन से तुम्हारी उदासी मिट जायेगी।" युगवीर को यह बात पसंद आ गयी । यूरोप आदि देशों में घूमने का तीन महिने का वीशा बन गया और वह विदेश में घूमने के लिये प्रसन्न मन से वायुयान के द्वारा रवाना हो गया। युगवीर विदेश से घूमकर आ गया । लेकिन उसकी उदासी पूरी तरह नहीं टूटी । प्रेमिका का विश्वासघात उसके हृदय में शल के समान कसक रहा था । उसे किसी भी बात में रस नहीं रहा था। उसे बार-बार मन में आत्मघात करने का विचार आता था । उसका मन बड़ा ही अव्यवस्थित हो उठा था। उसके मान पर बहुत बड़ी चोंट पड़ी थी। तभी मनि रणधीरसिंहजी अपने गुरु के संग विचरण करते हुए वहाँ पधार गये। घर के सभी जन उनके दर्शन करके प्रफुल्लित हो रहे थे । युगवीर को भाई ने कहा-“अपने पिताजी महाराज पधारे हैं । दर्शन करने गये या नहीं ?" उसे यह बात सुनकर कुछ भी उल्लास नहीं हुआ । परन्तु उत्तर देना आवश्यक था । अतः वह यों ही अनमने भाव से पूछ बैठा-“कब पधारे? मुझे तो कुछ पता ही नहीं"। भाई ने कहा-“कल ही तो । तुम अपने आप में ही खोये रहते हो । हो क्या गया है तुम्हें आजकल !" अपना पिंड छुड़ाने के लिये.
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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