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________________ ( २७९ ) फिर बाहर व्यवहार में क्रियाशील होता है। ४. शुभ मन में निर्वेद का प्रादुर्भाव होता है। इसलिए मन का 'वरे' विशेषण दिया गया है । जिनवाणी की आस्था होने पर मन की गति कुछ सम्यक् बन जाती है । भगवद्वाणी की आस्था से वासित मन ही वरमन है। ऐसे वर=श्रेष्ठ मन में ही निर्वेद विलसित होता है। ५. विलसइ=मनोमोहक चेष्टाओं से युक्त सुशोभित होता है। आशय यह है कि निर्वेद वर मन में क्रीड़ा करता हैसिद्धिमार्ग के गुणों को अभिव्यक्त करता है । कषाय और भोग का राग अपच्चक्खाणकसाओ, भोगरागं तु कीरइ । ता धम्म सद्दहन्तो वि, अविरइम्मि कोलइ ॥२३॥ अप्रत्याख्यानकषाय भोग के राग को (उत्पन्न) करता है। इसकारण जीव धर्म की श्रद्धा करता हुआ भी अविरति में क्रीडा करता है। टिप्पण-१. अप्रत्याख्यान चतुष्क के उदय के कारण सम्यक्त्वी मानव अंश मात्र भी त्याग नहीं कर पाता है। २. सम्यक्त्वी जीव सावद्ययोग के त्याग रूप चरित्रधर्म का पूर्णतः श्रद्धान रखता है। वह मानता है कि सावद्य-योग के सेवन से चरित्र कदापि विशुद्ध नहीं हो सकता है। सावद्ययोग की प्रवृत्ति अर्थात् असम्यक् चरित्र और सावद्ययोग से विरति अर्थात् सम्यक्चरित्र । ३. सम्यक्दृष्टि आत्मा यह अच्छी तरह से जानता है कि सावद्ययोग के त्याग से ही जिनशासन की प्रवृत्ति होती है । अतः जो सावद्ययोग-विरति को बाह्य क्रिया कहकर उड़ाता है, वह जिनशासन का उच्छेदक है। वह आत्मा सम्यक्दृष्टि नहीं हो सकता। अतः वह सर्वविरति की श्रद्धा पूर्ण रूप से करता है। ४. अनादिकालीन अभ्यास से भोग का राग जाता नहीं है। अप्रत्याख्यानी कषाय उसका पोषण करता है और उत्पादन भी करता है।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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