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________________ ( २७८ ) राग और भव में अरुचि उत्पन्न होती है। ३. संसार-भव विषय-प्रधान होता है । पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन ही संसार में सुखरूप प्रतीत होता है। इसलिये संसार और इन्द्रियों के विषय एकमेक-से हो गये हैं। इसी बात को 'गुण में भव और भव में गुण' रूप में विकल्प के रूप में रखी है। ४. आयारंग के जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे-इस सूत्रांश का अनुवाद ही गुणे भवो भवे गुणा है। गुण अर्थात् शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श । पाँचों इन्द्रियों के विषय ये ही हैं। शब्द आदि विषय रूप संसार है और संसार में इन विषयों का सेवन ही परम सुख है। इनके अभाव में संसार और संसार के अभाव में इनके अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। भवभीति-विषयभीति-- भवा बोहेइ जो भव्वो, सो विसया वि बोहइ । भव-भीइत्ति निव्वेओ, विलसइ मणे वरे ॥२२॥ (इसलिए) जो भव्य भव से डरता है, वह विषय से भी डरता है। यह भवभीति (या विषय-भीति) निर्वेद है (जो) श्रेष्ठ मन में सुशोभित होता है। टिप्पण-१. भव और गुणों को अलग नहीं किये जा सकते हैं । अतः भव का भय अर्थात् विषयों का भय और विषयों का भय अर्थात् भव का भय है। क्योंकि विषयभोग से भव की वृद्धि होती है और भवभ्रमण में विषयानुराग वृद्धि पाता है। २. निर्वेद की दो परिभाषाएँ हैं-विषयों से विरक्ति और भव से भीति । इस गाथा में दोनों परिभाषाएँ स्वीकृत की है। वस्तुतः जिसे भवभ्रमण से भीति उपजती है, उसे विषयभोग भी अति भयावने लगते हैं। अतः भवभीति और विषयविरक्ति दोनों एक ही सिक्के के दो पहल हैं। इन दोनों को निर्वेद कहने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती है। ३. निर्वेद आभ्यन्तर गुण है, जिसका मन में प्रादुर्भाव होता है और
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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