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________________ ( २८० ) भोगे दुक्खं मुणतो वि, तम्मि सुहं च वेयइ । तम्हा रज्जति भोगेसु, पच्छा मणम्मि पीडइ ॥२४॥ (संविग्न जीव) 'भोग में दुःख है'-यह जानता हुआ भी उस (भोग) में (राग के कारण) सुख का ही वेदन करता है। इसीकारण (वह) भोगों में आसक्त होता है और बाद में मन में पीड़ित होता है। टिप्पण-१. ज्ञान और वेदन में भिन्नता हो सकती है । जैसे धूम्रपान के व्यसनी को यह ज्ञान और विश्वास हो चुका है कि मुझे धूम्रपान से केसर हो गया है। किन्तु उस व्यसन में राग के कारण धूम्रपान में सुखानुभूति होती है । ऐसा ही है-ज्ञानी के ज्ञान और भोग के वेदन में वैभिन्न्य । २. ज्ञानी का भोग में राग है, क्योंकि उसमें सुख का वेदन होता है और सुख का वेदन भोग में होता है, क्योंकि पूर्व के भोगाभ्यास के कारण उसमें राग है । उस राग को ज्यों का त्यों बनाये रखने में अप्रत्याख्यानावरणकषाय सहायक बनता है-जनक भी बनता है। जैसे व्यसन-सेवन की स्वतंत्रता व्यसन से निवृत्त नहीं होने देती है और व्यसन के राग को उत्पन्न भी करती है और पुष्ट भी। ३. संविग्नजीव भोग में राग के कारण उसमें आसक्त हो जाता है और लीन हो जाता है। परन्तु जब भोगों से निवृत्त होता है, तब उसे पश्चाताप होता है । क्योंकि भोग-प्रवृत्ति कर्मबन्ध का हेतु है। सम्यक्ज्ञान दर्शनमोहनीय और ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से होता है। किन्तु भोग चरित्रमोहनीय के उदय से और सुखानुभूति शातावेदनीय और चरित्रमोहनीय के उदय से होती है। ४. भोग के समय चरित्रमोह ज्ञान पर हावी हो जाता है और 'भोग में दुःख है' यह विस्मरण हो जाता है । इस विषय में खुजली से पीड़ित जन का उदाहरण प्रसिद्ध है। फिर बाद में (भोग से निवृत्त होने के पश्चात्) पुनः ज्ञान जाग्रत होता है । जिससे मन में पश्चाताप होता है और अपनी नादानी पर खेद ।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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